मन को शक्तिमान बनाने का रास्ता है मौन-व्रत
“11 फरवरी, मौनी अमावस्या पर विशेष”
मंथरा ने मौन की धमकी ही दी कि बदल गई अयोध्या की सत्ता : श्रीराम हुए वनवासी
– सलिल पांडेय
मौन की महत्ता का गुणगान जितना धार्मिक ग्रन्थों में है, उससे कहीं अधिक इस मौन को साध लेने से मिलता है। इसी महत्ता को समझकर भक्त कवि सूरदास ‘ज्यों गूंगे मीठे फल को रस अंतर्गत ही भावे’ कह बैठते हैं। केवल सूरदास ही नहीं बल्कि पंचतंत्र में ‘एकै साधे सब सधे’ को सिद्ध करते हुए ‘मौनं सर्वार्थसाधनं’ का उद्घोष कर किया गया है । पूरी सनातन संस्कृति में व्रत, उपवास, तप-जप का उद्देश्य मौन की ओर उन्मुख करना ही प्रतीत होता है। मौन साधते मन में मृदुता के स्वर स्वतः प्रस्फुटित होने लगते हैं। इसी मृदुल स्वर का एहसास जब डाकू रत्नाकर को मौन साधने का विधिवत प्रशिक्षण महर्षि नारद ने कराया तो डाकू जैसा कर्कश भाव तिरोहित हो गया और माधुर्य की धारा अंतर्जगत में जब बहने लगी और वे आदि कवि होकर महर्षि वाल्मीकि हो गए।
सनातन संस्कृति ही क्यों कोई भी धर्म, संप्रदाय या पंथ हो, सभी मौन के मार्ग का अनुसरण करते हैं। जन्म मिला है तो मरण भी निश्चित है। यह मरण मौन होना ही तो है। इसी मौन के रास्ते हर कोई अपने-अपने धर्म के ईष्ट तक जाता है। प्रणव मंत्र ‘ऊँ’ के तीन अक्षरों को अलग-अलग करने पर पहला अक्षर ‘अ’ अस्तित्व में आने का सूचक है। जन्म लेते अस्तित्व में आना कहा जाएगा। अस्तित्व की यह प्रक्रिया हर धर्मावलंबियों के लिए एक ही तरह की है। दूसरा अक्षर ‘उ’ भी उत्थान को परिभाषित करता है। सभी शिशु, किशोर, युवा, प्रौढ़ और वृद्ध होते अंतिम अक्षर ‘म्’ तक पहुंचते हैं। इस अंतिम अक्षर ‘म’ का हलन्त (आधा) भौतिक शरीर के मौन से ही जुड़ता है। व्यक्ति के जीवन में की गई लीला और उसकी कला कभी नहीं मरती। श्रीसत्यनारायण व्रतकथा में लीलावती और उसकी बेटी कलावती का जिक्र व्यक्ति के जीवन की लीला और कला की ओर ही इंगित करता है। अंतिम अक्षर ‘म’ का आधा होना यह सन्देश देता है कि अपने जीवन में ही वाह्य जगत के अधूरेपन को छोड़कर यदि मौन धारण कर लिया जाए तो क्षीरसागर में ब्रह्मानन्द, परमानन्द स्वरूप विष्णु जी स्वतः दिखने लगेंगे।
प्रश्न यह है कि माघ महीने को ही क्यों ऋषियों ने मौन-व्रत के लिए चयनित किया ? इस चयन के पीछे भी कुछ तो कारण रहे होंगे । सबसे पहला कारण तो यही है कि सौर वर्ष का ग्यारहवां महीना है। दस ज्ञानेन्द्रियों एवं कर्मेन्द्रियों सहित मन ग्यारहवीं इन्द्रिय है। यानि माघ पूर्ण मानव-स्वरूप %LS