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poem : “व्याकुल नैन ताकते अम्बर”

नमी नहीं बाकी तलअन्तस, वसुधा जल बिन तरसे।
व्याकुल नैन ताकते अम्बर, जाने कब घन बरसे।

फटी बिवाई लेकर घिसटें, सड़क बनीं अंगारा।
सूरज का चाबुक है चलता, चढ़ता नित नित पारा।
पोखर कूप होठ पपड़ाये, प्यास ढूंढती पनघट।
सूखे तृण सी छांह जली है, प्राण हारते जीवट।

सहमे से घर द्वार विलपते, तप्त पवन के डर से।
व्याकुल नैन ताकते अम्बर, जाने कब घन बरसे।

मोर नृत्य करना हैं भूले, मौन सुबकती कोयल।
खग मग हाँफ रहे हैं व्याकुल, जल बिन ढोतेकश्मल।
पर्ण विहीन विटप पंजर सम, गात लता कुम्हलाए।
धूसर रंग दिखे चहुं दिस में, सुखद हरित बिसराए।

घन रव सुने हृदय को अब तो, सीसी बीत गए हैं अरसे।
व्याकुल नैन ताकते अम्बर, जाने कब घन बरसे।

धरती विरहन करे प्रतीक्षा, कब संदेशा पाए।
नव जीवन देने को प्रीतम, मेघ दूत भिजवाए।
इंद्र धनुष चूनर सतरंगी, श्यामल श्वेत उड़ें घन।
स्वाति बूंद पी करता चातक, वर्षा का अभिनंदन।

दबे पांव से सरके सूखा, हर्षित हो वन सरसे।
व्याकुल नैन ताकते अम्बर, जाने कब घन बरसे।

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