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Varanasi : नागरी प्रचारिणी सभा की वर्तमान स्थिति

✍️ प्रवीण वशिष्ठ

वाराणसी, (उ.प्र.) : लोग कह रहे हैं काशी बदल रहा है और इतना बदल रहा है कि एकबार घूम लीजिये नहीं तो भूल जाएंगे।काशी अब क्योटो होगा ऐसी बात सुनने में आ रही है। इस बात से फर्क किसे पड़ता है लेकिन जो लोग क्योटो की पुरानी पुस्तकालय जिसमें जापानी ग्रन्थ सुरक्षित पड़े हैं; उन्हें नहीं देखा है तो काशी के नागरी प्रचारिणी सभा जरूर देख लें। आप स्पष्ट हो जाएंगे कि काशी की काशी कितना बदल नहीं रहा है! काशी बदल नहीं रहा बल्कि उसपर लीपा-पोती किया जा रहा है। वैसे ही जैसे पके हुए बाल पर काला रंग लगाकर किया जाता है।

व्हाट्सएप की दुनियां से निकलकर एक दिन मैं काशी के नागरी प्रचारिणी सभा गया। मैं उसी काउंटर के पास खड़ा था जहाँ किसी जमाने में हजारी प्रसाद द्विवेदी जी के सरस्वती पत्रिका की प्रति लेने के लिए सैकड़ों लोग लाइन में खड़े रहते थे। क्या वो लोग रहे होंगे बाबू शिव प्रसाद गुप्त, देवकीनंदन खत्री, रामचंद्र शुक्ल, हजारी प्रसाद द्विवेदी और पांडेय बेचन शर्मा उग्र जैसे लोग कभी इस धरती पर चले होंगे। प्रेमचन्द्र जयशंकर, प्रसाद जैसे मौलिक साहित्यकारों का वहाँ उठना बैठना रहा होगा। हिन्दी खड़ी भाषा और देवनागरी लिपि की प्रथम पाठशाला के रूप में उस जमाने में स्थापित वह जीर्ण भवन है जिसकी प्रासंगिकता उर्दू के विस्थापन से जुड़ी है।

देश आज राजनैतिक रूप से नये भारत का जश्न मना रहा है। लेकिन वह भवन हिन्दी के विलाषिता का मातम मना रही है। मैं सोच रहा था जो लोग कभी हिन्दी पत्रकारिता के माध्यम से ब्रिटिश हुकूमत की आलोचना करते थे, अगर आज वो होते तो वर्तमान परिदृश्य पर क्या लिखते। उनकी कलम वेदना से कौन सी क्रांति पैदा होती?

आज का रोमांस बड़ा ही पेचीदा है, हिन्दी के हितैषी लोग कभी इस भवन में आएंगे तो सिड़न व बदबू के मारे बेहोश हो जाएंगे। सरकार जीर्णोद्धार भवन का कर सकती है लेकिन साहित्य की जीर्णता व जद्दोजहद का क्या होगा पता नहीं। वहां एक भी पुस्तक ऐसी नहीं है जो पढ़ने की स्थिति में बची हो। पुस्तकों की कैटलॉगिन तो छोड़िये उन्हें पहचानना भी मुश्किल है। स्थिति यह है कि दलाल रखवाले लोग बीस रुपये में जयशंकर प्रसाद को बेचने के लिए तैयार हैं। अभी हाल ही में सुनने में आया है कि उस जगह पर पूजीपतियों की नजर है। कभी भी सत्ता उन जीर्ण पुस्तकों को दफना कर वहाँ कोई भौतिक इमारत खड़ी कर सकती है। उस इमारत की नींव में उन साहित्यकारों की भावनाएं उनकी ह्रदय वेदना नष्ट हो जाएंगी। फिर यही जनता जो आज बीस रुपये देकर नागरी प्रचारिणी सभा की सदस्यता नहीं ले रहा है वहाँ बैठकर पाँच सौ रुपये का बर्गर खायेगा।

अब बद्रीनारायण प्रेमधन को पढ़कर कोई साहित्यकार बनने का सपना नहीं देखेगा। कोई प्रेमचंद जैसा सामाजिक परिदृश्यक पैदा नहीं होगा। अब लोग राजनैतिक चाटूकारिता के विलाषि हो गए हैं। साहित्य तो दम तोड़ ही रहा है।

यह वही नागरी प्रचारिणी सभा है जिसमें लेख निकलवाने का सपना उस जमाने में प्रत्येक साहित्यकार का होता था। वहाँ की सदस्यता लेकर हिन्दी खड़ी बोली कि सेवा करने वाले क्रांतिकारी अब नहीं रहे। केवल जीर्ण इमारत में वही भावनाएं बची हैं जिन्हें दुर्भाग्य से पढ़ा नहीं जा सकता।

  • इसमें कोई दो राय नहीं कि भारत में नागरी प्रचारिणी सभा का उद्भव और उसकी प्रासंगिकता एक जमाने में एक नए प्रकार का भाषाजनक प्रयोग था। पूरे भारत में हिन्दी नागरी लिपि के प्रचार व प्रसार का कार्य करने में नागरी प्रचारिणी सभा का विशेष योगदान रहा है। स्थापित उर्दू भाषा उस जमाने में ज्ञान की भाषा थी। जबकि स्थानीय तौर पर हिन्दी खड़ी बोली व्यवहार की भाषा रही है। आचार्य रामचंद्र शुक्ल और कीस्टोफ़र किंग अपनी पुस्तक में विस्तृत रूप से हिन्दी-उर्दू विवाद का ज़िक्र करते हैं। बाबू शिव प्रसाद गुप्त का मतभेद भले की देवकीनंदन खत्री से रहा लेकिन देवकीनंदन जी प्रारम्भिक पाँच वर्ष नागरी प्रचारिणी सभा के सदस्य रहे। यही इस सभा की खूबसूरती थी। नागरी प्रचारिणी सभा कभी भी उर्दू भाषा का विरोधी नहीं रहा लेकिन हिन्दी भाषा का हिमायत वो आज भी कर रहा है। जबकि जनता एक तीसरी भाषा अंग्रेजी की ओर अग्रसर है।

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