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Poem : कहानी घर के रिश्तों की

✍️  अंशिता त्रिपाठी, लंदन

आजकल हर बहू एक बेटी ही बनना चाहती है,
ससुराल से रोक-टोक और शिकायत नहीं सुनना चाहती है,
बहू बन सिर्फ़ तारीफ़ और इज्जत पाना चाहती है,
न जाने फिर वो बहु से बेटी का कैसा अरमान बुनना चाहती है,

सहनशीलता रखों बेटी बन सुनने की भी,
अगर ख़्वाहिश है बहू से बेटी बनने की,
जब बेटी बहू का फर्क नहीं चाहती,
तो तारीफ के संग शिकायत का मौका दो,

रिश्ते मिले है अलग-अलग बहू बेटी सास माँ ससुर पिता दामाद बेटा,
घुल जाते जो एक में, इसलिये चलते नहीं लम्बे समय में आज,
इसलिए दामाद कभी नहीं कहते वो बेटे बनेगें,
दामाद बन ही बस कर्तव्य पूरा करेगें,

अगर बन जाये वो भी बेटे तो रिश्तें अवश्य हो जायेंगे खट्टे,
कर्तव्य सबसे ऊपर है, न करता है किसी रिश्तें में बटंवारा,
निष्ठा कर्तव्य से निभाओ अगर रिश्तें तो न चाहोगे,
बहु से बेटी, दामाद से बेटा, सास से माँ, ससुर से पिता कभी बनना,

जब कर्तव्य इबादत है, तो पूज्यनीय वंदनीय है, मानवता का हर रिश्ता।

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