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Poem : यूंही नहीं कोई मर्द कहलाता हैं !

✍️ मनीषा कुमारी

दिन-रात बिना थके बिना रुके कार्य करता हैं वो,
चाहे धूप हो बरसात कभी नही आराम करता हैं वो,
बीमार हो या भूखा हो कभी उफ्फ तक नहीं करता हैं वो,
परिवार के खुशियों के ख़ातिर अपना गम भूल जाता हैं वो।

कितनी भी परेशानी हो किसी से कुछ नही कहता हैं,
चुप-चाप रातों के अंधेरों में यूंही आहे भरता हैं,
हर-पल वह अपने परिवारों के ही लिए जीता है,
उनका सारा जीवन दूसरे के लिए समर्पित रहता हैं।

माँ-बाप के लिए तो कभी अपने बच्चों के लिए,
अपनी खुशियों की भी फिक्र नही करता हैं,
चाहे दिल मे हो लाखों दर्द कभी रो नही पाता है,
क्योंकि मर्द है ना वो पग-पग पे इम्तिहान देता हैं।

धूप में तपता है बारिश में भींगता रहता हैं,
हर हाल में अपना दायित्व वह पूरा करता हैं,
दफनाकर अपनी ख्वाईशें को औरो के लिए मुस्कुराता हैं,
मन की बातों को मन मे ही रख गम के आँसू पीता हैं।

दुनिया की ताने सुनता हैं पत्थर दिल कहलाता हैं,
हर परिस्थिति में अपने घर को संभालता हैं वो,
अपनों को कभी कोई दुख न हो इसीलिए वो,
चट्टानों से भी लड़ जाता है यूंही नही कोई मर्द कहलाता है।

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