निराला की आंखें कम्प्यूटरीकृत थीं
~ सलिल पांडेय
मीरजापुर, (उ.प्र.) : सिर्फ नाम से ही नहीं बल्कि अपनी काव्य-रचना से हिंदी साहित्य के सूर्य थे पं सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’, जिनकी सरस्वती पूजा के साथ जयंती वसंत पंचमी के दिन मनाई गई। इस अवसर पर मां सरस्वती की अभ्यर्थना में लिखी गई उनकी कविता ‘वर दे, वीणावादिनि वर दे, प्रिय स्वतंत्र-रव अमृत-मंत्र नव, भारत में भर दे !’ का पाठ शिक्षण-संस्थानों में किया गया।
उक्त कविता में निराला जी मां सरस्वती से आमजनों की तरह मांगे जाने वाला वरदान नहीं मांग रहे हैं। इस कविता में विद्या एवं ज्ञान की देवी को माध्यम बनाकर निराला जी सरस्वती-स्वरुपा मनुष्य की इच्छाशक्ति से कह रहे हैं कि वह विद्या का वरण करें जो तरंगों में प्रवाहित हो रहा है।
कम्प्यूटर साइंस : वर्तमान युग में इस कविता की समीक्षा करने पर स्पष्ट होता है कि सरस्वती की वीणा आज के तीव्र संचारयुग का संयंत्र है। वे महर्षि पतंजलि की योगसाधना के जरिए वीणा के सप्ततारों की तरह सप्तचक्रों को झंकृत करने के लिए कह रहे है जिसके चलते सहस्रार (पिट्यूटरी ग्लैंड) से अमृत बरसने लगता है। इसी कविता के पहले ही छंद में निराला जी ‘प्रिय स्वतंत्र रव शब्द का प्रयोग इसलिए करते हैं ताकि विकारों से आबद्ध मन स्वतंत्र गूंज का सामर्थ्य हासिल कर सके। ‘भारत’ शब्द का अर्थ ‘ज्ञान में संलग्न’ के रूप में लिया जाए तो स्पष्ट हो जाता है कि शून्य में अपार ज्ञान प्रवाहित हो रहा है, इसे साधकों ने समय-समय पर अर्जित कर मन्त्रद्रष्टा ऋषि कहलाए।
अंतिम छंद : कविता के अंतिम छंद में तो 21वीं ही नहीं बल्कि आने वाली सदी दिख रही है। ‘नव गति, नव लय, ताल-छंद नव….नव नभ के नव विहग-वृंद को नव पर, नव स्वर दे !’ जब निराला जी लिख रहे थे तो उन्हें आभास पूरी तरह था कि आने वाला वक्त हर पल नया सोचने और लांच करने का आएगा। इस नएपन की धारा में वही पाँव जमा सकेगा जो लीक छोड़कर चलेगा।