– वीरेन्द्र बहादुर सिंह
देखा जाए तो देश की बागडोर असल मायने मेें अफसरों के ही हाथों में होती है। अगर नौकरशाही दुरुस्त होती है तो कानूनव्यवस्था चाकचौबंद रहती है। आज जिस तरह से भ्रष्टाचार का दीमक नौकरशाही को खोखला किए जा रहा है। जिससे लोगों का उस पर से विश्वास उठता जा रहा है। लेकिन कुछ ऐसे भी आईएएस या आईपीएस अफसर हैं, जो अपनी साख बचाए हुए है। उनके कारनामों को आज मिसाल के तौर पर पेश किया जा रहा है। ऐसे ही पुलिस अफसरों में एक अफसर हैं असम कैडर की आईपीएस संजुक्ता पराशर। असम की पहली आईपीएस अफसर संजुक्ता पराशर बहादुरी का दूसरा नाम है।
सन् 2008-09 की बात है। उन दिनों ट्रेनिंग के बाद संजुक्ता पराशर की तैनाती असम के माकुम मेें असिस्टेंट कमांडेंट के रूप में थी। उनकी पोस्टिंग के कुछ ही दिन हुए थे कि तभी उदालगिरी बोडो और बांग्लादेशियों के बीच जातीय हिंसा हुई तो संजुक्ता पराशर को उस जातीय हिंसा को रोकने के लिए भेज दिया गया। संजुक्ता भले ही नई-नई पुलिस अधिकारी थीं, पर अपनी हिम्मत और सूझबूझ से उस जातीय हिंसा को तो समाप्त किया ही, उन्होंने अपनी टीम क साथ कुछ ऐसा किया कि उग्रवादी उनके नाम से कांपने लगे।
देश की आंतरिक सुरक्षा का मामला हो या फिर सीमा पर दुश्मनों से डट कर मुकाबला करने की बात हो, हमेशा हमारे जेहन में रौबदार पुरुष जवानों के ही चेहरे नजर आ जाते हैं। लेकिन अब यह मिथक टूटने लगा है। देश की बेटियां अब पुलिस से ले कर सेना तक हर उस क्षेत्र में आज अपना लोहा मनवा रही हैं, जहां पहले सिर्फ पुरुषों का वर्चस्व था। आज हम यहां देश की जिस बहादुर बेटी संजुक्ता पराशर की बात करने जा रहे हैं, उनका नाम सुन कर बड़े से बड़े अपराधियों की ही नही,ं बड़े से बड़े आतंकवादियों तक की रूह कांप उठती है। असम की इस प्रथम लेडी आईपीएस ने बहुत ही कम समय में अपनी बहादुरी से मीडिया में ही नहीं, आम आदमी के दिल तक में अपनी जगह बना ली है।
संजुक्ता पराशर, यह नाम ही दहशतगर्दो की नींद हराम करने भर के लिए काफी है। असम की आयरन लेडी के नाम से मशहूर आईपीएस अधिकारी संजुक्ता पराशर की बहादुरी की जितनी तारीफ की जाए, कम है। उन्होंने देश के पूर्वी राज्य असम मेें पिछले कई सालों तक बोडो उग्रवादियों के खिलाफ मोर्चा ही नहीं संभाला, बल्कि उन्होंने जिस तरह जंगलोें में ढूंढ़ढूंढ़ कर आतंकवादियों को गिरफ्रतार किया है, इससे इस पुलिस अफसर ने बहादुरी की एक नई मिसाल पेश की है।
41 वर्षीया आईपीएस संजुक्ता पराशर असम की ही रहने वाली हैं। उनके पिता दुलालचंद बरुवा असम में सिंचाई विभाग में इंजीनियर थे, तो माता मीरा देवी स्वास्थ्य विभाग में नौकरी करती थीं। बचपन से ही संजुक्ता को खेलकूद का शोैक था। उन्हें तैराकी बहुत अच्छी आती है। इसके लिए उन्हें स्कूल में पढ़ते समय कई पुरस्कार भी मिले हैं। मां ने उनकी इन खूबियों को निखारा। वह हमेशा संजुक्ता को समझती रहती थीं कि वह किसी से कम नहीं है। मां ने उन्हें एक बेटे की तरह ही मौके दिए। उन्होंने ही सजुक्ता को हिम्मत और सम्मान के साथ जीना सिखाया। उसी का नतीजा हे कि आज वह सिर उइा कर चल रही हैं।
असम के गुवाहाटी के होली चाइल्ड स्कूल से अपनी 12वीं तक की पढ़ाई पूरी करने के बाद संजुक्ता आगे की पढ़ाई के लिए दिल्ली आ गईं। जहां उन्हें अलगअलग राज्यों से आए छात्रें से मिलने का मौका मिला। यहां उनके लिए बहुत कुछ नया था। दिल्ली मेें उन्होंने दिल्ली यूनीवर्सिटी के इंद्रप्रस्थ कालेज से राजनीति विज्ञान से ग्रेजुएशन किया। नंबर कम होने से पहले तो इंद्रप्रस्थ कालेज में उनका दाखिला ही नहीं हो रहा था। नंबर कम होने से कभी जिस लड़की का दाखिला नहीं हो रहा था, आगे चल कर उसी लड़की ने यूपीएससी की परीक्षा में 85वीं रैंक हासिल की थी।
इंद्रप्रस्थ कालेज से ग्रेजुएशन करने के बाद जवाहरलाल नेहरू यूनीवर्सिटी (जेएनयू) से इंटरनेशनल रिलेशन मेें मास्टर डिग्री ली और यूएस फॉरेन पॉलिसी मेें एमफिल और पीएचडी की। बचपन से ही वह आईपीएस बन कर देश की सेवा करना चाहती थीं। पीएचडी करने के बाद वह सन् 2004 में आब्जर्वर रिसर्च में काम करने लगीं। बचपन से ही वह आईपीएस बन कर देश और जनता की सेवा करना चाहमी थीं, इसलिए आब्जर्वर रिसर्च में काम करने के साथसाथ वह संघ लोक सेवा आयोग (यूपीएससी) की तैयारी भी कर रही थीं। काम करते हुए वह रोजाना करीब 5 से 6 घंटे पढ़ाई करती थीं। उनकी मेहनत रंग लाई और उन्होंने सन् 2006 मेें यूपीएससी की परीक्षा पास कर ली। इस परीक्षा मेें उनकी 85वीं रैंक आई थी।
अच्छी रैंक होने की वजह से उन्हें अपनी इच्छा से अपना कैडर चुनने की छूट दी गई। संजुक्ता पराशर जब असम में अपनी स्कूली पढ़ाई कर रही थीं, तभी से वह अपने राज्य में हो रही आतंकवादी घटनाओें और भ्रष्टाचारियों की गतिविधियों से दुखी थीं। इसलिए उन्होंने अच्छी रैंक लाने के बावजूद आईएएस बन कर आराम की नौकरी करने के बजाय आईपीएस बन कर असम में ही काम करने का निर्णय लिया। इसके लिए उन्होंने असम-मेघालय कैडर चुना। क्योंकि आईपीएस अपुसर बन कर वह कुछ अच्छा करना चाहती थीं।
पुलिस अफसर बन कर उन्होंने किया भी अच्छा। उन्होंने दुखी और परेशान लोगों की मदद भी की। उनका कहना है कि पुलिस अफसर बन कर परेशान लोगों की मदद करने का मौका मिलता है। यह बेहतरीन सेवा है। यह नौकरी मुझे सुकून देती है। एक महिला होने के नाते असम के अशांत इलाके में काम करना आसान नहीं था, पर संजुक्ता ने दिलेरी के साथ इसे स्वीकार किया।
2008 में ही उन्होंने असम-मेघालय कैडर के ही आईएएस अधिकारी पुरु गुप्ता से शादी की। इस समय उनके दो बेटे हैं, जिनकी देखभाल उनकी मां करती हैं। व्यस्तता की वजह से दो महीने मेे एक बार ही वह अपने परिवार से मिल पाती हैं। पुलिस अधिकारी होने के साथसाथ वह मां भी हैं, पर काम की वजह से उन्हें परिवार से दूर रहना पड़ता है। पर संजुक्ता को इसका जरा भी गम नहीं है। क्योंकि पुलिस अधिकारी होने के नाते समाज के प्रति उनकी अहम जिम्मेदारियां जो हैं।
सन् 2008 में संजुक्ता पराशर की पहली पोस्टिंग माकुम मेें असिस्टेंट कमांडेंट के रूप में हुई थी। लेकिन कुछ ही महीने बाद उन्हें उदालगिरी में हुई बोडो और बांग्लादेशियों के बीच जातीय हिंसा को काबू करने के लिए भेज दिया गया था। हालात पर काबू पाने के लिए उन्होंने टीम क साथ जम कर काम किया। यह उनकी पहली परीक्षा थी, जिसमें वह अपनी सूझबूझ से पास भी हुईं। उदालगिरी में जातीय हिंसा पर काबू पाने के बाद उनकी पोस्टिंग आतंकवादग्रस्त इलाके में ही कर दी गई। फिर तो संजुक्ता उग्रवादियों के पीछे हाथ धो कर पड़ गईं। उन्हेें जोरहट जिले का एसपी बनाया गया तो हाथ में एके-47 ले कर असम के जंगलों में सीआरपीएफ के जवानों को लीड करती थीं।
संजुक्ता पराशर ने अपनी टीम पर हमला करने वाले उग्रवादियों की धरपकड़ तो की ही, साथ ही उन उग्रवादियों को भी पकड़ा, जो जंगल को अपने छुपने के लिए इस्तेमाल करते थे। इस तरह की जगहों पर ऑपरेशन को लीड करना बहुत मुश्किल होता है। वह बहुत ही दुर्गम इलाका है, जहां मौसम में तो नमी रहती ही है और कब बारिश होने लगे, कहा नहीं जा सकता। यहां नदी, झील और जंगली जानवरों का भी खतरा रहता है। नदी और झील पार कर दूसरे छोर तक पहुंचना बहुत कठिन काम होता है। इसके अलावा स्थानीय निवासी भी उग्रवादियों को पुलिस की गतिविधियों की सूचना देते रहते हैं।
2011 से 2014 तक जोरहट की एसपी रहते हुए संजुक्ता पराशर ऑपरेशन को खुद ही लीड करते हुए सन् 2013 में उन्होंने 172 तो 2014 में 175 आतंकवादियों को गिरफ्तार कर सलाखों के पीछे पहुंचाया। इसके बाद सन् 2015-16 में सोनितपुर की एसपी रहते हुए अपने 15 महीने के ऑपरेशन में उन्होंने 16 आतंकवादियों को मार गिराया तो 64 को गिरफ्तार किया। जबकि सोनितपुर के जंगलोें में आतंकवादियों को खोज निकालना बहुत बड़ी चुनोती का काम था। पर उन्होंने इस चुनौती को स्वीकार किया और उग्रवादियों के बीच अपने नाम का लोहा मनवा कर ही रहीं। उन्होंने तमाम उग्रवादियों को गिरफ्रतार तो किया ही, इन आतंकवादियों के पास से उन्होंने भारी मात्र में गोला और बारूद भी बरामद किया।
मणिपुर के चंदेल में 18 सीआरपीएफ के जवानो के शहीद होने के बाद संजुक्ता पराशर को उनकी टीम क साथ उस इलाके में पेट्रोलिंग के लिए भेजा गया। इसका नतीजा यह निकला कि इस बहादुर आईपीएस संजुक्ता पराशर की टीम ने मई, 2016 में मलदांग मेें नेशनल डेमोक्रेटिक फ्रंट आफ बोडोलैंड शाक विजिट के 4 आतंकवादियों को गिरफ्तार किया। उनकी हिम्मत को देख कर उस इलाके के आतंकवादी उनका नाम सुन कर कांपने लगे।
इसकी वजह यह थी कि जिस जगह पर अन्य पुलिस अधिकारी जाने से डरते थे, सजुक्ता पराशर वहां बेखौफ हो कर ऑपरेशन चलाती थीं। यही वजह थी कि उनका नाम सुन कर उग्रवादी कांपने लगे थे। उनके इस साहस भरे कदम से उग्रवादी इस तरह घबराने लगे थे कि उन्हें जान से मारने की धमकी देने लगे थे। बाजारों में भी उनके खिलाफ पंपलेट चिपकाए गए, पर उग्रवादियोे की इन धमकियों से न कभी वह डरीं और न कभी इसकी परवाह की। वह अपने आतंकवादी विरोधी अभिायन में उसी तरह लगी रहीं। आतंकवादियों के लिए वह बुरे सपने की तरह थीं।
महिला होने के बावजूद संजुक्ता पराशर का नाम सुनकर बड़े से बड़े दहशतगर्दों की दहशत दम तोड़ देती थी। क्योंकि वह बड़ा से बड़ा जोखिम भरा काम करने से जरा भी नहीं घबराती थीं। इसकी वजह यह है कि संजुक्ता के लिए महिला होना किसी तरह की कमजोरी नहीं है। उनका कहना हेै कि महिला होना किसी भी तरह से किसी भी काम में कोई बाधा नहीं है। यह केवल एक तरह का भ्रम है। महिला हो या पुरुष, पुलिस सेवा में सभी को समान अधिकार और समान जिम्मेदारियां मिली होती हैं। कहीं किसी तरह का कोई फर्क या भेदभाव नहीं होता। अगर किसी महिला को कठिन चुनौती मिली हुई है यह अच्छी बात है, बिना डरे उसे खुद को तैयार करना चाहिए। अपनी इसी बहादुरी की वजह से संजुक्ता पराशर आज लड़कियों की रोल मॉडल बन गई हैं।
सन् 2017 में उनकी पोस्टिंग नेशनल इन्वेस्टिगेशन एजेंसी (एनआईए) मेें एसी के रूप मेे चार साल के लिए कर दी गई है। तब से अभी वह एनआईए में ही काम कर रही हैं। अपने काम से हमेशा संतुष्ट रहने वाली संजुक्ता पराशर को एक बात का अफसोस है कि जब वह सोनितपुर की एसपी थीं, तब वह एक बिजनेसमैन को नहीं बचा पाईं थीं। इसे वह अपने जीवन का सबसे मुश्किल केसभी मानती हैं। हुआ यह था कि एक गैंग ने उस बिजनेस मैन को हनीट्रेप मे फांस कर उसका अपहरण कर लिया था। उसक इस अपहरण में उसी का गनमैन और एक कॉनगर्ल शामिल थाी। फिरौती के लिए जिस नंबर से फोन किए जा रहे थे, वह सिम फर्जी नाम-पते पर लिया गया था। इसलिए पुलिस को अपहर्त्ताओं तक पहुंचने मे काफी समय गया और पुलिस जब तक उन तक पहुंचती, तब तक अपहर्त्ताओं ने बिजनेसमैन की हत्या कर दी थी। संजुक्ता को आज भी इस बात का अफसोस है कि वह किडनैप किए गए बिजनेसमैन को बचा नहीं पाइ्र्रं। उस बिजनेसमैन के परिवार से बात करते हुए वह आज भी नर्वस हो जाती हैं। क्योंकि उन्हें लगता है कि यह उनकी हार थी।
(लेखक “मनोहर कहानियां” व “सत्यकथा” के संपादकीय विभाग में कार्य कर चुके है। वर्तमान में इनकी कहानियां व रिपोर्ट आदि विभिन्न पत्र पत्रिकाओं में प्रकाशित होती रहती है।)