✍️ चाँदनी गुप्ता, संगम विहार, नई दिल्ली
इच्छाओं के भाव सागर में,
असंतुष्ट कुंठित मन होगा।
फंसे पड़े हम मरीच जाल में,
न जाने कैसा प्रलय सघन होगा।
इच्छाओं के प्रबल भाव से,
धीरे-धीरे चित हरण होगा।
जो कुछ है तेरे पास उससे,
कहां मन संक्षिप्त होगा।
अब नई चीजों की चाह में,
मन का पंछी विचलित होगा।
इच्छाओं के भाव सागर में,
असंतुष्ट कुंठित मन होगा।
जो मिल गया वह शून्य है,
जो नहीं मिला अमूल्य है।
यह सोच मन,
प्यासे कौवे सा तड़पेगा।
औरों के जीवन सुख से,
मन बन भौरे सा भटकेगा।
अध्यात्म को छोड़,
भौतिकता को जब तू तरसेगा।
जीवन के सुख को त्याग,
निराशाओं के पथ से गुजरेगा।
अब मन में कहां बसेंगे राम,
इच्छाओं का रावण पनपेगा।
नई रोशनी की चाह में,
घनघोर काले बादलों सा तू गरजेगा।
इच्छाओं के भवसागर में
असंतुष्ट कुंठित मन होगा।