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Poem : क्वार के बादल

✍️ मनोज द्विवेदी, चुनार, मिर्जापुर

क्वार के बादल!
नील गगन में,
फिरते है बेचारे
मारे मारे।
दिनकर की प्रखर किरणो से
अनथक संघर्ष कर
सूखने नही देते है,
जीवन सत्व।
अनेक इन्द्रधनुष खिलते है,
एक विचित्र बिम्ब सा
खिलने लगता है
इनकी भुजाओ, वक्ष और होठो पर,
आह! अपरमित सौन्दर्य, अविराम!
प्रखर भाष्कर – तेज से दग्ध
पसीने से तरबतर,
पंथी के होठो पर
एक तुष्ट मुस्कुराहट खिल सी उठती है,
इनकी छाया पा।
हां! मैं मानता हूं मित्र
तुम्हारी बात!
कि इनमें कुलश्रेष्ठ
संवर्तक या पुष्पदंत मेघ
नही होते, जो वप्रक्रीडा में
कुञ्जर के तिरछे दन्तप्रहार का
आभास देते है, .
पर धरती मां के आंचल में
नये सृजन हेतु
नितांत उपादेय है..

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