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नारी को समर्पित : “अपने दम पर…”

दुसरो से दो कदम पीछे ही सही, पर अपने “दम” पर चलती हूँ मैं।
जिस तरह जग को रौशन करने निकलती है सूरज की रौशनी,
उसी तरह घर से परिवार का नाम रौशन करने निकलती हूँ मै।
महकती हूँ आंगन में खुशबू की तरह फूलों की तरह खिलती हूँ मैं।
उगती भी हूँ एक दिन की तरह तो शाम की तरह ढलती हूँ मैं।
किसी ने देखा नही अभीतक मेरा हौसला और मेरी ताकतों को,
मजबूत हूँ सबके लिए लेकिन अपनों के लिए पिघलती हूँ मैं।
पता है मुझे आराम नही एक पल एक घड़ी का भी इतना काम जो है,
टूटती, बिखरती हूँ एक शीशे की तरह और आग की तरह जलती हूँ मैं।
पता है राह आसान नही मगर, फिर भी चोंट खाकर चलती हूँ मैं।
मेरा एक घर नही जो ज़िम्मेदारी नही सर पे, दो दो घरों के नक्से बदलती हूँ मैं।
समर्पित हूँ अपनों के लिए गिरती हूँ तो कभी संभलती हूँ मैं।
सुबह से रात तक पता ही नही चलता नींद के झोंको से आंख मलती हूँ मैं।

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