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Poem : रस रंग की बौछार

✍️ शुचि गुप्ता

शुभ उत्स है यह फाग में, निर्झर हृदय उद्गार।
सद्भावना की वृष्टि हो, रस रंग की बौछार।

हैं टेसुए आंचल सजे, सरसों विहँसती खेत।
स्वर्णिम बिछी हैं बालियां, मुग्धित धराअभिप्रेत।
कोयल मधुर सी कूकती, गुन गुन भ्रमर गुंजार।
सद्भावना की वृष्टि हो, रस रंग की बौछार।

कंचन दिवस निशि है रजत, पुरवा पवन का संग।
उन्मत्त होते गात हैं, थिरकन बढ़ी है अंग।
आसव घुलेगा प्रीत का, मीठी तरल मनुहार।
सद्भावना की वृष्टि हो, रस रंग की बौछार।

है चाैक पूरी द्वार पर, खुशियां बनातीं छाप।
हिलमिल ठिठोली कर सखी, मृदु फाग के आलाप।
साथी स्वजन को उर लगा, दें नेह का उपहार।
सद्भावना की वृष्टि हो, रस रंग की बौछार।

छल द्वेष मत्सर दंभ मद, का हो धरा से अंत।
संस्कृति सनातन उर्वरा, है दिव्य शुभकर पंत।
अंतस कलुष का हो समित, अब होलिका अंगार।
सद्भावना की वृष्टि हो, रस रंग की बौछार।

रूठे प्रथक तो जा निकट, दे दो अधर मधु हास।
नेहिल तरंगें डोलती, सुरभित नवल उल्लास।
सबको क्षमा दे कर करो, शुचि प्रेम का व्यवहार।
सद्भावना की वृष्टि हो, रस रंग की बौछार।

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