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बनारस का बुढ़वा मंगल

✍️ प्रवीण वशिष्ठ

वैसे तो बनारस के लिए कहा ही गया है कि सात वार और नौ त्योहारों का शहर है। यह बात सही भी है, बनारस की सुंदरता के हजार रंग हैं। यहाँ ध्रुपद मेला है तो पंचकोशी यात्रा भी है। अपने आप में एक सांझी विरासत व संस्कृति का केंद्र है बनारस। ऐसा बिल्कुल नहीं कि होली सिर्फ बनारस में खेली जाती है लेकिन बनारस की होली की लोकप्रियता का कारण उसे मनाने के ढंग व उसके मिज़ाज से है। पूरे देश में जहाँ होली फगुआ गा कर मनायी जाता है तो बनारस में एक अलग प्रकार की होली खेली जाती है जिसे मसाने की होली कहते हैं। आशुतोष भगवान शिव के द्वारा जो होली खेली गयी उसे मसाने की होली कहते हैं। 0pppp

इस पर एक लोकगीत गाया गया है जिसके बोल हैं :

“खेलै मसाने में होली दिगम्बर, खेलै मसाने में होली,
लट सुंदर फागुनी घटा के, मन से रंग गुलाल हटा के,
चिता भस्म भरी झोली, दिगम्बर! चिता भस्म भर झोली
खेलै मसाने में होली,
ना साजन नहीं गोरी, दिगम्बर! खेलै मसाने में होली।।”

इसी प्रकार से बनारस में बुढ़वा मंगर भी मनाया जाता है; होली के बाद जो भी पहला मंगलवार पड़ता है उसी दिन बुढ़वा मंगर मनाया जाता है। होली के बाद से ही बुढ़वा मंगर तक अस्सी घाट से दशाश्वमेध घाट तक नौकायन किया जाता है। बनारस के विभिन्न व्यापारीक मण्डलीयों, संगठनों, सेवादल, रईसों, जुलाहों, सेठ- महाजनों और काशी नरेश की नौका साजों सजावट के साथ इस जलउत्सव में हिस्सा लेती थी। नौकायन या जलउत्सव पर फगुआ और चैता का रंगारंग कार्यक्रम होता है। काशी के घरानों के संगीत उस्तादों के द्वारा अपने प्रतिभा का प्रदर्शन किया जाता था। काशी के प्रसिद्ध सहनाई वादक भारतरत्न उस्ताद बिस्मिल्लाह ख़ाँ ने अपने एक साक्षात्कार में बताया था कि “बड़ा ही सुंदर, मनोरम दृश्य होता है जब सजी सुन्दरी सी नवका होली गाते हुए विभिन्न घाटों से होकर दशाश्वमेध घाट तक जाती थी।” इसके साथ ही ख़ाँ साहब ने इस विलुप्त होती परंपरा पर दुःख भी व्यक्त किया है। उन्होंने कहा आज बनारस की घाटों पर वह रौनक़ नहीं रहा जो पहले हुआ करती थी। बनारस के संगीत घराने के उपशास्त्रीय गायक पद्मविभूषण छन्नूलाल मिश्र भी इस विलुप्त होती परंपरा पर दुःख व्यक्त किया है।

बुढ़वा मंगर की शुरुआत कब होती है? इसका नाम बुढ़वा मंगर क्यों पड़ा? इसका कोई लिखित इतिहास नहीं है। कुछ लोगों का मानना है अवध के निर्वासित नवाब मीर रुस्तम अली के द्वारा इस परंपरा की शुरूआत की गयी। कुछ किवंदती इसे और पुराने समय के साथ जोड़ते हैं। कुछ लोग प्रभु हनुमान से इस परम्परा को जोड़ कर देखते हैं। मंगलवार भगवान के जन्मोत्सव के दिन इस अवसर पर दशाश्वमेध व राजघाट पर मेले का आयोजन किया जाता था। बुढ़वा मंगर इसका नाम क्यों पड़ा? इस विषय पर कम ही प्रकाश डाला गया है। हास्य-व्यंग्य की काव्यगोष्ठीयों में बूढ़े और जवानों की टोलियां आपस में अपने उत्साह प्रकट करते हुए काव्यपाठ करते हैं।

बुढ़वा मंगर के उत्सव में क्षेत्रीय साहित्यकार भी खूब हिस्सा लेते थे इनमें सबसे प्रमुख नाम है भारतेंदु हरिश्चंद्र जिनके पिता जी बनारस के बड़े व्यापारी थे। इनकी अपनी ख़ुद की नौका थी। जिसपर रासरंग हुआ करता था। बनारस के बुढ़वा मंगर को देखने दूर- दूर से लोग आते थे। कुछ लोगों को काशीराज के द्वारा आमंत्रित किया जाता था। जिनमें लेडी डफरिन, मेजर स्टाफ का नाम प्रमुख है। इन मेहमानों द्वारा इस खास उत्सव पर प्रकाश भी डाला गया है। मिर्ज़ापुर के प्रसिद्ध साहित्यकार बद्रीनरायन ‘प्रेमधन’ ने बुढ़वा मंगर पर एक लेख लिखा है; जिसमें उन्होंने अपने निजी विचारों को साझा किया है। उन्होंने बुढ़वा मंगर को युवाओं का सनीचर कहा है। प्रेमधन जी कहते हैं कि ‘तवायफ व रंडियों के नाच गाने की ऐसी होड़ थी कि सभी सेठ- महाजन अपना नाव सजवाते थे और इस जलउत्सव में हिस्सा लेते थे। काशी नरेश की नैया अलग ही सजी सँवरी रहती थी जिसपर ब्रिटिश अधिकारीयों के साथ काशीराज स्वयं इस उत्सव में हिस्सा लेते थे। अपने रोचक चित्रण में प्रेमधन जी बड़ा ही बारीकी से इस उत्सव का उल्लेख किया है। इस उत्सव की प्रासंगिकता यह भी है कि जब जलियांवाला बाग कांड हुआ था उसके बाद यह उत्सव दो तीन वर्ष तक स्थगित रहा। इस उत्सव में काशीनरेश के प्रत्यक्ष सहभागिता से इसका महत्व रामलीला के समान बढ़ जाता है।

होली पर फगुआ के साथ ही चैता भी गाने की परंपरा रही है। दरसल चैत्र महीने की सुंदरता को हिन्दू नववर्ष की शुरुआत के रूप में जाना जाता है। हिन्दू नववर्ष की शुरुआत में वृक्षों में नए पत्ते आते हैं कोयल गीत सुनाती है। लोकगायन में रात जब लम्बी होती है और कोयल बोलती है तो लोग सुबह समझकर बिस्तर छोड़ देते हैं।

इस पर एक लोकगीत है जो बिरहन गाती है

“सेजिया से सईआं उठी गईले हो रामा,
कोयल तोरी बोलिया पे,
होत भोर तोर खोतवा उजड़बो,
और कटईबो बनबगिया हो रामा,
कोयल तोरे बोलिया पे।।”

आज बुढ़वा मंगर बस निवर्हन का विषय बन गया है। कभी एक समय हुआ करता था जब बनारस को लोग होली का राजा भी कहते थे। आज डीजे के धुन में फगुआ धूमिल हो रहा है। नहीं यही बनारस है जहाँ भांग व गाजा चढ़ा कर शिव भक्त काशीवासी अपने बनारसी अंदाज में फगुआ-चैता गाते थे। जोगीरा सा रा रा रा रा के धुन में पूरा बनारस कहता था ‘आवा रजा फगुआ में फाग सुनावा की तनी चिलम चढ़ावा हो’।

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