– इन्दु सिन्हा “इन्दु”
सहमी हुई आँखों से,
विवश होकर,
क्यो देख रहे हो मेरे लाल,
पत्थर तोड़ तोड़ कर,
मेरा ह्रदय पाषाण ना हुआ,
तपती दोपहरी में,
बस पानी ही मिलता है,
सूखी छातियों से क्या,
कभी दूध निकलता है ?
इसी तरह सड़क के किनारे,
खपच्चियों के झूले में,
बिताने होंगे कई साल,
गर्मी से झुलसे होठों पर ,
आ गयी मुस्कान उदास,
तुम्हारे नसीब का भी,
यही होगा हाल,
तुम्हे नही मालूम,
तुम अनमोल हो,
तुम्हारा चेहरा, मेरी विवशता
कैमरे की रोशनी है,
दीवारों की शोभा है,
ये ही भारत की सच्ची तस्वीर है,
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