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कहानी : भूख

– वीरेन्द्र बहादुर सिंह

गांव के बाहर बड़ा सा तालाब, उसके बाद श्मशान और श्मशान के बगल ही एक ऐसी बस्ती, जिसे गांव वाले कचरा समझ कर उससे दूर ही रहते थे। हर तरह से बदनाम और बरबाद यह बस्ती एक चीज में जरूर आबाद थी- आबादी बढ़ाने में। हर घर में चार, पांच या छह बच्चे नंग-धड़ंग, भूखे, भटकते जंगती बबूल की तरह बिना लालन-पालन के पल जाते थे और बस्ती की आन-बान तथा शान को बढ़ाते थे।

वैसे तो करीम और सलमा के यहां भी चार बच्चे पैदा हुए थे, जिनमें तीन बेटे और एक बेटी थी। लेकिन सुलतान को छोड़ कर बाकी के तीन बच्चे किसी न किसी बीमारी में एक के बाद एक चल बसे थे। एक तरह से यह ठीक ही हुआ था। क्योंकि करीम में सलमा और सुलतान का ही पेट भरने का दम नहीं था, अगर वे तीनों भी जीवित होते तो उन सब को क्या खिलाता? किसी तरह वह एक जून की रोटी की व्यवस्था कर पाता था। उसमें भी कभी-कभी करीम और सलमा आधा पेट खा कर पानी पी कर सो जाते थे। बच्चा तो मान नहीं सकता था।

उस दिन भी सुलतान रोते-रोते आया था, ‘‘अम्मी बहुत जोर से भूख लगी है। कुछ खाने को दोे न।’’

सलमा ने कुछ कहे बगैर उसके सामने मिट्टी का वह बर्तन पलट दिया था, जिसमें वह रोटियां रखती थी। भूखे सुलतान को यह देख कर और गुस्सा आ गया।

‘‘इन दिनों गांव में सब के घर अच्छा-अच्छा खाना खीर-पूरी, बड़ा-फुलौरी बन रही है। एक तुम हो, कुछ बनाती ही नहीं हो। न खाने को देती हो। तुम बहुत गंदी हो, गंदी।’’

सलमा को भी गुस्सा आ गया। करीम के ऊपर का सारा गुस्सा वह सुलतान पर उतारते हुए बोली, ‘‘अरे अच्छा-अच्छा खाना था तो किसी राजा-महाराजा के यहां जनम लेता। यहां खून पीने क्यों चला आया?’’ इसके बाद वह साड़ी के फटे पल्लू से क्वार महीना का चिपचिपा पसीना पोंछते हुए बोली, ‘‘कैसी भी हूं, तेरी अम्मी हूं। मुझे भी अच्छा-अच्छा बना कर खिलाने का मन होता है, पर तेरा बाप कुछ ला कर दे तब तो कुछ बनाऊं। तू कह तो खुद ही चूल्हे चढ़ जाऊं। रोज-रोज की इस तकलीफ से फुरसत मिल जाए। जब देखो, तब अम्मी से ही इस तरह की बातें करता रहता है। इस घर में कभी आने का मन नहीं होता है। घर भी क्या है? कच्ची मिट्टी की चार दीवालें और सिर पर घस-फूस की छप्पर।’’

घर में कुछ खाने को नपा कर क्वार महीने उस चमकती धूप में भी सुलतान निकल पड़ा।

‘‘अरे सुलतान इधर कहां जा रहा है?’’ रास्ते में खड़े फरीद ने पूछा।

‘‘बहुत जोर से भूख लगी है यार फरीद। भूख से पेट में दर्द हो रहा है। कहीं से सूखी रोटी भी मिल जाती तो पेट मेें डाल कर आग बुझा लेता।’’

‘‘तुझे सूखी रोटी की पड़ी है, यहां गांव के कुत्ते भी खीर-पूरी उड़ा रहे हैं।’’ फरीद ने हंसते हुए कहा।

‘‘बस यार, यहां भूख से जान निकली जा रही है और तुझे मजाक सूझ रही है। सूखी रोटी ही मिल जाए बहुत है, मेरे नसीब में खीर-पूरी कहां है।’’ सुलतान ने कहा। पर खीर-पूरी के नाम पर उसके मुंह में पानी आ गया था। उसने सूखे होंठ पर जीभ फेरी।

‘‘मजाक नहीं कर रहा यार। चल मेरे साथ, तुझे सचमुच में खीर-पूरी खिलाता हूं।’’

 कह कर फरीद श्मशान की ओर ओर चल पड़ा। चलते हुए ही फरीद ने कहा, ‘‘इन दिनों हिंदुओ का न जाने कौन सा त्योहार चल रहा है कि गांव के लोग अपने पुरखों को भूतों से बचाने के लिए श्मशान में खीर-पूरी, बड़ा-फुलौरी, मिठाई रख जाते है। रोज 10-11 बजे तक चार-छह लोग पत्तलों में इस तरह का खाना ले कर आते हैं और कौवों को खिलाते हैं, गाय को भी खिलाते हैं, कुछ खाना यहां श्मशान में रख जाते हैं।’’

फरीद को जो जानकारी थी, उसने बताया।

फरीद अक्सर उधर जाता रहता था, इसलिए उसने देखा था कि तमाम लोग पत्तल में खीर-पूरी, बड़ा-फुलौरी रख गए हैं। कुछ लोग रखने के लिए ले कर जा रहे थे। सुलतान छोटा था, इसलिए डर के मारे वह श्मशान की ओर नहीं जाता था। उस दिन फरीद साथ था, इसलिए वह उसके साथ चला गया था।

‘‘अच्छा-अच्छा खाना रख कर ये लोग अपने पुरखों को भूतों से कैसे बचाते हैं?’’ सुलतान ने पूछा।

‘‘अगर भूत को भूख लगी होती है तो वह छोटे बच्चों को खा जाता है। पर अगर उसके पहले भूत को खाना मिल जाए तो उसका पेट भर जाता है। तब वह बच्चों को नहीं खाता। समझ गए न?’’ सुलतान से बड़ा होने की वजह से फरीद के पास बहुत जानकारियां थीं।

बातें करते हुए दोनों श्मशान में पहुंच गए। चार-पांच जगह खीर-पूरी, बड़ा-फुलौरी, मिठाई रखी देख कर सुलतान की भूख और बढ़ गई। उसे लगा कि वह कितनी जल्दी पत्तल में रखे इस खाने पर टूट पड़े और अपना पेट भर ले। पर फरीद ने भूत की बात की थी, इसलिए वह थोड़ा घबराया। शायद इसीलिए वह रुक गया। पर उससे रहा नहीं जा रहा था, इसलिए उसने कहा, ‘‘फरीद भूत के हिस्से से अगर मैं कुछ खा लूं तो भूत मेरा कुछ करेगा तो नहीं?’’

‘‘तुझे खाना हो तो खा, बाकी मैंने तुझे सब कुछ बता दिया है। अगर तुझे कुछ होगा तो मेरी जिम्मेदारी नहीं होगी। भई अब मैं चला।’’ इतना कह कर फरीद सचमुच चल पड़ा। भूख से व्याकुल सुलतान का दिमाग ज्यादा सोचने-विचारने की स्थिति में नहीं था। उसने झपट कर दो पत्तल उठाए और कुत्ते की तरह खाने पर टूट पड़ा। दो दोना खीर पेट में गई तो उसे याद आया कि अम्मी बेचारी भी भूखी है। दो पत्तल खाना ले कर वह खुशी-खुशी घर पहुंचा। उस समय उसका बाप करीम भी घर में ही था। सुलतान के हाथ में खाना देख कर वह समझ गया कि यह खाना ले कर कहां से आ रहा हैै। वह जोर से चिल्लाया, ‘‘अरे श्मशान से तू खाना उठा लाया? भूत ने पकड़ लिया तो—-?’’

खुशी-खुशी खाना ले कर आने वाला सुलतान बाप की बातें सुन कर घबरा गया। बचाव की उम्मीद में अम्मी की ओर देखते हुए उसने कहा, ‘‘अम्मी मैं तो खीर-पूरी, बड़ा-फुलौरी सब खा कर आ गया। सब बहुत बढ़िया था, इसलिए मैं तेरे लिए भी ले आया। फरीद कह रहा था कि इसे खाने से कुछ नहीं होता। अम्मी मुझे भूत कुछ करेगा तो नहीं?’’

सलमा की आंखों में आंसू आ गए। उसने उलाहना भरी नजरों से करीम की ओर देखते हुए कहा, ‘‘बच्चा कब से भूख-भूख कर रहा था, घर में कुछ खाने के लिए होता तब तो इसे देती? अब खुद जा कर कुछ खाने के लिए खोज लिया तो क्यों बच्चे को डरा रहे हो?’’ इतना कह कर वह आगे बढ़ी और बेटे को सीने से लगा कर बोली, ‘‘कुछ नहीं बेटा, तुझे कुछ नहीं होगा। ला देखूं, दिखा तो मुझे, मेरे लिए क्या लाया है?’’

सुलतान के हाथों से पत्तल ले कर सलमा ने एक बड़ा उठा कर मुंह में डाला और कहा, ‘‘देख, मैंने भी खा लिया न। अब डरने की कोई बात नहीं है बेटा, इसे खाने से कुछ नहीं होता।’’ इसके बाद करीम की ओर देख कर बोली, ‘‘भूख से बड़ा कोई भूत नहीं है। इसे भूत खाए या न खाए, पर उसके पहले इसे भूख खा जाती। अच्छा हुआ कि यह श्मशान जा कर खीर-पूरी खा आया।’’

प्यार से उसने सुलतान को अपने फटे पल्लू में छुपा लिया।

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