Poem : “तुलसी उत्पत्ति”
✍️ आशी प्रतिभा दुबे, ग्वालियर, मध्य प्रदेश
श्री श्रापित हुई गंगा से,
अवतरण हुई धरती पर
लेकर दो रूप अवतार
नारायण भक्त बृंदा और
दुजी नदी स्वरूप।।
जलांधर नामक राक्षस से,
विवाह हुआ था उनका
जिसका देवताओं से था बैर,
जीत रहा था युद्ध में देवो से,
सती वृंदा के थे पुण्य प्रताप।।
बैठी वृंदा ,हरी की पूजा पर
मांग रही थी आपने आराध्य से
दे दो हे हरी मुझे यह वरदान,
युद्ध विजय कर प्रभु लोटे मेरे नाथ,
हर पल मांगू तुमसे जीवित रहे सुहाग।।
इधर देवताओं ने किया आग्रह,
हे नारायण! करो देव कल्याण
चिर निद्रा से उठो देव अब
देवताओं को करो सुरक्षित
बृंदा को ना देना आप वरदान।।
नारायण बोले देवो से वाणी
कैसे भगत को करू मैं निराश
राक्षस कुल के जलांधर के
कैसे छोड़ दू मैं प्राण
देवो के रक्षा हेतु विकल्प नहीं है आज।।
तब हरि ने रखा जालंधर का रूप,
पहुंच गए वृंदा के पास
जालंधर को देख वृंदा ने
स्पर्श किए जब हरि चरण
गई युद्ध में जलांधर की जान।।
सती व्रत को भंग किया जब,
द्रवित हो उठी सती बृंदा मां
कहा हे हरी नारायण तुमने
छला है अपने भक्त का मान
मार दिया जीते जी हरकर मेरे नाथ के प्राण।।
बोली वृंदा रूदन स्वर में
देती हूं तुम्हें मैं श्राप
बन जाओ पाषाण स्वरूप
पत्थर दिल हे मेरे भगवान
और सती ने दे दी अपनी जान।।
तब लछमी जी भागी भागी आई
पकड़ लिए चरण वृदा के,
हे वृंदा तुम नहीं कोई पराई नार,
वृंदा रूप मैं हो तुम मेरा ही अवतार,
जालंधर भी नारायण का अंश अवतार।।
प्रकट हुए फिर हरी स्वयं वहा ,
किया देवी वृंदा को प्रणाम ,
तुम मेरी प्रिय लक्ष्मी अवतार
प्रसन्न हूं हे निश्छल वृंदा मैं
तुम्हारी इस अपार भक्ति से ।।
मैं देता हूं तुम्हें यह वरदान
तुम तुलसी का पौधा बन जाना
मैं पाषाण रूप में शालिग्राम कहलाऊंगा
सर माथे रहोगी तुम मेरे हे सती वृंदा,
युगो युगो तक तुलसी संग ब्याह रचाऊंगा।