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काशीदास करहा बाबा की लोक पूजा परम्परा

✍️ प्रवीण वशिष्ठ

गाँव देहात में विशेषकर यादव जातीय में एक प्रकार की पूजा की जाती है जिसे ‘करहा पूजा’ भी कहते हैं। इस पूजा पद्धति में सामुहिक रूप से या अकेले गांव के किसी व्यक्ति विशेष द्वारा इसका आयोजन किया जाता है। इस पूजा को करने वाले लोगों को ‘भगत’ कहते हैं। भगत वंशानुगत होते है जिन्हें इस अवसर पर बुलाया जाता है। भगत पुरोहित नहीं होते बल्कि काशीदास बाबा के पुजारी होते हैं। इस पूजा की मान्यता लोकहित से जुड़ा हुआ है। जन कल्याण की भावना से इस पूजा का आयोजन किया जाता है। परम्परा अपने आप में एक लोक अभिव्यंजना हैं, जिसे परिभाषित नहीं किया जा सकता। इसकी निरन्तरता कितनी प्राचीन है? इस आलोक में बस यही कहना है कि परंपरा प्राचीन नहीं होती है। जो चीज आज भी शतत रूप से चल रहा है, वह परिवर्तनशील हो सकता है, प्राचीन नहीं हो सकता। इसकी एक मान्यता यह भी है कि भगवान कृष्ण को खुश करने के लिए ऐसा किया जाता है। इसका एक पक्ष यह भी है कि अहीर बिरादरी के जीवकोपार्जन का आधार पशु ही होता है। अतः पशु के कल्याण के लिए यह पूजा आयोजित की जाती है। बिना पशुओं की उपस्थिति में यह पूजा नहीं किया जाता है।

इस पूजा की प्रक्रिया विभिन्न अंचलों में अलग-अलग तरीके से होता है। लेकिन इसकी एक बात अलग है कि ‘करहवा दूत’ के द्वारा गर्म दूध या खीर से जो स्नान किया जाता है वो बेहद आश्चर्य करने वाला है। पूरे पूजा की तैयारी कुछ इस प्रकार होता है कि जहां पूजा होनी है पहले उस स्थान को अच्छे से साफ़ कर लेते हैं। फिर पास पड़ोस को पूजा में सम्मिलित होने के लिए बुलाया जाता है। जिस व्यक्ति के द्वारा पूजा का अनुष्ठान लिया जाता है, वह व्यक्ति उपवास करेगा जब तक करहा पूजा सम्पन्न न हो जाए। पूजा के दौरान पांच मुख्य ‘अहरा’ (ऊपरी को जला कर लगाया जाता है) लगाया जाता है। अहरे पर मिट्टी के घड़े में साफ दूध चढ़ाया जाता है। एक अहरा अलग काशीदास बाबा के लिए लगाया जाता है। उसपर फूल-माला चढ़ा कर ‘भगत’ पूजा करते हैं। वैसे भगत पांचों में पक रहे उबलते दूध से स्नान करता है, लेकिन मुख्य अलग अहरे से पूरा स्नान करता है। जहाँ पूजा होता है, वहाँ दो ड्रम ठंडा पानी रखा होता है। जहाँ भगत बीच-बीच में स्नान करता है। उसी पूजा पंडाल में चरवाहे के द्वारा पशुओं का झुंड खासकर गायों को लाकर छोड़ दिया जाता है। भगत बीच-बीच में पशुओं की परिक्रमा करता है। और देवी पचरा गाता है। इसी बीच एक खास बात यह होती है कि भगत जनता को आशीर्वाद भी देता है। आशीर्वाद लेने वाला व्यक्ति झुकता है और भगत उसके पीठ पर पैर रखकर आशीर्वाद देता है। ऐसीं मान्यता है कि भगत के सर पर उस दौरान काशीदास बाबा और माँ भवानी सवार होती हैं। इस ‘दौरान’ भगत देवी पचरा गाता है, दौड़ लगाता है और पूरे परिसर का परिक्रमा करता है। बीच-बीच में गर्म दूध, आग का आलिंगन करता है।

यह पूजा पद्धति अपने आप में अनोखा है। इसे आज के पत्रकारों व मीडिया के द्वारा अंधविश्वास व जोखिम भरा बताया जाता है। लेकिन करहा पूजा में जो कुछ होता है सब मान्यता के अनुसार ही घटित होता है। गाय के गोबर के उपले, दूध और गाय की उपस्थिति में यह पूजा किया जाता है। उबले दूध के खीर व आग से भगत को कोई नुकसान नहीं होता। पूजा के उपरांत हवन किया जाता है। करहवा बाबा का प्रसाद सबको बांट दिया जाता है। लोक कल्याण के निहितार्थ आयोजित इस पूजा अवसान के उपरांत भगत का सेवा सत्कार किया जाता है। उसी के साथ पूजा संम्पन्न हो जाता है।

लोक मान्यता पर आप सवाल नहीं उठा सकते, उसे परिभाषित भी नहीं करना चाहिए। करहा पूजा एक लोक आस्था है जो किसी खास जातीय समुदाय द्वारा किया जाता है। लोक कल्याण की भावना से अषाढ़ महीने में किया जाता है। लोक सहभागिता, लोक सद्भाव और लोक विधान इसमें अंतर्निहित है। पूरे तरीके से यह पूजा प्राकृतिक है। इसीलिए यह खुले मैदान में किया जाता है। इसमें किसी प्रकार के पुरोहित नहीं होते। ‘भगत’ काशीदास के भक्त माने जाते हैं और उन्हीं के उपस्थिति में यह पूजा सम्पन्न होता है। हमें इस पूजा को अंधविश्वास नहीं बल्कि आस्था का एक सरोकार समझना चाहिए।

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