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Poem : “समाज का आईना – मुंशी प्रेमचन्द्र”

✍️  सुनीता सिंह सरोवर, (देवरिया, उत्तर प्रदेश)

मुंशी थे वे प्रेम के,
भारतीय संस्कृति के संवाहक थे,
“मानसरोवर” सी थी साधना उनकी,
“कर्मभूमि” ही अराधना थी,
जात पात से हटकर,
हामिद के ईद का नमाज़ थे,
“नमक के दरोगा” से वफ़ा-ए-नमक
सिखलाया था,
“बड़े घर की बेटी” से कुल का मान बढ़ाया था,
“कफ़न” की लाचारी में दया की भीख मांग
अगन क्षुधा की तृप्ति का कड़वा सत्य दर्शाया है,

हाड़ कपाने वाली “पूस की रात”
में दहका हलकू के दर्द और झबरा के मूक प्रेम
को उकेर प्रकृति का रूप दिखलाया है,
इंसा के दुख में मूक पशु कितना बडा़ हमदर्द है,
एक तरफ है क्रूर प्रकृति तो दुजे निष्ठुर सामंत हैं।

पथ प्रदर्शक थे वे समाज के,
बडी़ ही खामोशी से “गबन” का भेद दर्शाया है,
“रंगमंच” है यह दुनिया
पावन हो कर्तव्य तुम्हारा हे मानव,
यह संदेश जन जन तक पहुँचाया था,

कालजयी है “रंगभूमि”
जनसंघर्ष का तांडव है, सत्य, निष्ठा और अहिंसा
के प्रति आग्रह कर स्त्री की दुर्दशा का भयावह
चित्रण कर जनसमूह को जगाया था।

भारत की इस पावन भूमि पर
“गौदान” बडा़ ही पावन है,
मिलता है मोक्ष इसी से गौ सेवा का महत्व
समझाया है,
“प्रेमाश्रम” प्रेम के रस से परिपूर्ण है तो
दो बैलों की कथा में हीरा मोती का प्यार बड़ा
अनमोल है,
एक स्त्री के मन की व्यथा से ओत प्रोत है
“निर्मला”
निर्मम है यह समाज हमारा “बूढी काकी ” गवाह
हैं,

जीवन रूपी इस मंच पर मानव की विसात टीकी
है शतरंज की गोटियों पर,
कभी हार -कभी जीत में फँस कर बढ़ता जाता
कालचक्र है,
साहित्य पुजारी मुंशी जी,
आईना थे वे समाज के,
भाई थे वे दीन दुखी के,
रुढिवादिता के घोर आलोचक,
ज्ञान का भंडार थे,
शब्द सरोवर के शब्द भी कम पड़
जाएंगे मुंशी तेरे गुणगान में।।

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