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Poem : ” रिश्तो की डोर “

✍️ नूतन मिश्रा (प्रयागराज)

जीवन पर रिश्ते हैं भारी
कितना भी झुठला लें अज्ञानी
सब कुछ तो रिश्ते ही हैं
कैसे कहें इनको बेमानी

मात्र इस प्रश्न का उत्तर
दे दे कोई भी ज्ञानी
संतान के लिए रात्रि जागरण कर
क्यों करती मां पलकें भारी

जिनसे डरते उनके चाकर
घर में जिनकी धाक है चलती
बच्चों के झूठ मुठ के खेल पर
कैसे वही पिता बन जाते अज्ञानी

हर घर रामायण की बातें
कहें बनो राम लखन अनुगामी
इसीलिए चूल्हे हों अलग भले ही
दिल नहीं अलग नहीं कर पाते विज्ञानी

रिश्ते सभी अहमियत वाले
लेकिन दोस्ती की बात निराली
दोस्त से मिलकर कैसे खिल पड़ती
अकेली पड़ी जिंदगी वीरानी

कितना कठिन समय है गुजरा
कितनी हो विपदाएं भारी
रिश्ते ही तो पूंजी है सबकी
ना होगा कभी इनसे जीवन खाली

स्वास्थ लालच और धन के पुजारी
कर लें अपनी अपनी मनमानी
क्यों करें उनकी बात कभी भी
मर गया जिनकी आंख का पानी

फिर से महकेगा सबका जीवन
फिर प्रकृति संगीत सुनाएगी
भय और निराशा से दूर रहें
करें हम रिश्तों की अगवानी

यदि हो रही डोर यह कच्ची
करें जतन वो बढे इनकी मजबूती
डोर यदि हो जाए पक्की
गूथ लें सुंदर सुंदर मोती

मेरे लिए रिश्तो की भाषा
रही सदा जीवन से बढ़कर
जीवन मरण तो लगा रहेगा
किंतु ना रहे रिश्तों से खाली

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