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कविता : “महामारी”

– अंजू जांगिड़”राधे” (सोजत, पाली, राजस्थान)

पैसो का गुमान हुआ चकनाचूर
इस महामारी ने तोड़ा सबका गुरुर।।

धन्ना सेठो का अहंकार खंडहर हुआ
हर जगह श्मशान सा एहसास हुआ।।

प्रकृति ने अपना क्रूर रूप दिखाया
इंसान का धन रूतबा काम न आया।।

काढ़ा व जड़ी बूटी जमाना फिर आया
बड़े बुजुर्गों का कहां सामने फिर आया।।

सिकंदर को भी पैरों में गिरते देखा
अपने परिजनों के लिए भागते देखा।।

आज अपने ही अपनो से दूर भाग रहे
पर प्रभु मानवता भी किसी मे जगा रहे ।।

इंसा आज मानवता से भाग रहा है
सांस लेने के लिए भी भाग रहा है।।

प्रकृति ने सबको खूब चेताया था
इंसान तो जंगलों को बेच खाया था।।

क्या पता था मकां के मकां खंडहर हो जाएंगे
हर इंसा के दिलो में ये गहरे निशां छोड़ जाएंगे।।

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