
फौजी की कलम से
– सतीश ढाका
मेरी या तेरी नहीं हम सब की है,
यें जीत-हार भी हम सब की है।
गुजर रही है जिंदगी ऐसे मुकाम से,
अपने भी दूर हो जाते है जरा से जुकाम से।
तमाम कायनात में एक कातिल बीमारी की हवा हो गई,
वक्त ने कैसा सितम ढहाया कि दूरियां दवा हो गई।
आज रहे अगर सलामत तो कल की सहर देखेंगे,
आज पेहरे में रहे तों कल का पहर देखेंगे।
साँसो के चलने के लिए कदमों का रुकना जरूरी है,
घरों में बंद रहना हालातों की मजबूरी है।
मेरी या तेरी नहीं हम सब की है,
यें जीत-हार भी हम सब की है।
अपने लिए नहीं अपनों के लिए जीना है,
ये जुदाई का जहर घुट-घुट के पीना है।
आज महफूज रहे तो कल मिल के खिल-खिलाएँगे,
गले भी मिलेंगे और हाथ भी मिलाएँगे।
मेरी या तेरी नहीं हम सब की है,
यें जीत-हार भी हम सब की है।