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कविता : नारी कल और आज

  • अंशिता दुबे, लंदन

न जाने कितनी मजबूरियों ने घर बनाया होगा,
नारी तुम पे जमाने ने कितना सितम ढाया होगा,
आंसुओं को हृदय में तुमने तब तो छुपाया होगा,
जाने कितनी मंथरा और कैकयी ने आजमाया होगा।

मर्द की निगाहों ने कई चौराहे पे सताया होगा,
लाज दुपट्टे की किसी ने तब न बचाया होगा,
उन गलियों में वेदना का मातम छाया होगा,
कितनी फब्तियां कस जाल बिछाया होगा।

दुर्गा काली के गीत तुम्हारे लिए गाया होगा,
फिर भी कई घरों ने तुम्हें बेरहमी से जलाया होगा,
बदनाम गलियों में वैश्या बनाकर नचाया होगा,
शासन तुम्हारी आत्मा पर खूब चलाया होगा।

बेड़ियों को तोड़ तुम ने समाज को बतलाया होगा,
अंधेरी रातों का डर अपने भीतर से भगाया होगा,
आसमां में उड़, रिवाजों को दफनाया होगा,
अपनी क्षमता से हर क्षेत्र को अव्वल लाया होगा।

हर दिशा में अपने नाम का परचम फैहराया होगा,
ममता ने देख बेटियों को पलकों पर बिठाया होगा,
ऐसा देख सामाज खुद पे थोड़ा पछताया होगा,
नारी उत्थान के लिये हाथ फिर बढा़या होगा।

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