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“वक्त ही तो है …”

  • अर्चना त्यागी

कोरोना ने एक काम तो अच्छा ही किया है कि तस्वीर का असली रंग सामने ला दिया है। इस त्रासदी के दौर में भी कोरोना को हथियार बनाकर कुर्सी की जंग जारी है। एक पक्ष अड़ा है कि चुनाव प्रचार और कुंभ मेले के आयोजन से कोरोना की दूसरी लहर फैली है। वहीं दूसरा पक्ष जनता को इसके लिए जिम्मेदार ठहरा रहा है। जो छूट मिली थी नासमझ जनता ने उसका दुरुपयोग किया इसलिए कोरोना का सामुदायिक प्रसार हुआ और सीमित संसाधनों के चलते स्थिति काबू से बाहर हो गई। शादी समारोह, पार्टी, भ्रमण सभी कुछ शुरू हो गया था जबकि देश की चिकित्सा व्यवस्था से जनता अपरिचित नहीं है। फिर समझदारी क्यों नहीं बरती गई। विपक्ष अपनी रोटी सेंकने में व्यस्त रहा। जिस वैक्सीन की अब कमी बताई जा रही है, उसे ही बेकार साबित करने की चालें भी कम नहीं चली गई थी। रही सही कसर भ्रष्टाचार पूरी कर देता है जो हमारी रगों में खून के साथ बहता है। इंजेक्शन हो या दवाई, ऑक्सीजन हो या अस्पताल का बेड, सभी कालाबाजारी और चोरबजारी से हासिल करने की केवल कोशिश ही नहीं हुई बल्कि जबरदस्ती हासिल भी किए गए और खरीद कर रखे भी गए। देश की वास्तविक तस्वीर सामने आ गई इन परिस्थितियों में। ऐसा महसूस होता है कि कोई आका नहीं है, कोई मानवीयता नहीं है बस जिसकी किस्मत में है वो जी लेगा। जो किसी भी तरह से कमजोर है उसे यह वक्त नहीं छोड़ेगा।

सरकार की बात करें तो दूरदर्शिता कहीं नहीं दिखी इस बार। पांच राज्यों में जीत का परचम लहराने की मंशा इतनी बलवती हो गई कि दूसरी लहर की दस्तक सुनाई नहीं दी। सिद्ध हो गया कि राजनीति गिद्धों की बारात है जिसमें सब खाने वाले हैं, शगुन देने वाले नहीं। लोकतंत्र का भयानक सच यही है कि हर व्यक्ति खुद को प्रधान मंत्री समझता है और सरकार हमेशा बहुमत हासिल करना चाहती है। उसे अल्पमत अथवा सर्व सम्मति से कोई सरोकार नहीं है। पूरी दुनिया में कोरोना ने कहर बरपाया परंतु ऐसी हालत कहीं भी नहीं थी। मौत का तांडव, शर्मसार होती इंसानियत, खुले आम चोरबाजारी। जिन्हे भगवान के स्थान पर इस महामारी ने बैठा दिया है उनके चरित्र के भी सभी रंग देखने को मिल गए। इसी का नाम कल युग है। ना ही कोई कारगर इलाज है, ना जवाबदेही है, बस नौकरी बचा रहे हैं, पैसा कमा रहे हैं। सभी ऐसे हों यह नहीं कहा जा सकता लेकिन जो चेहरे सामने आए उनका रंग ऐसा ही था।

रोजगार पहले ही कम थे, महंगाई फन फैलाती ही जा रही थी अब तो कुछ कयास लगाना भी मुश्किल है। अगर इस दौर में जिंदा बच गए तो खायेंगे क्या ? जो लोग ठीक हैं, सुरक्षित हैं उन्हें अवश्य चिंतन मनन करना चाहिए। कोरोना ने एक याद रखने लायक सबक सामने खोल कर रखा हुआ है। इस सबक को भूलना नहीं है। हमेशा याद रखना है। अपने जीने के ढंग में बदलाव लाना आवश्यक है। सादा जीवन अब कहावत नहीं रह गया है बल्कि एक आवश्यकता बन चुका है। स्वास आधारित यौगिक क्रियाएं, उचित खानपान और व्यायाम अब प्रत्येक व्यक्ति को अपनी दिनचर्या का हिस्सा बनाना ही होगा। ऐसा नहीं है कि यह वक्त बदलेगा नहीं। ज़रूर बदलेगा लेकिन अपने पीछे छोड़ जाएगा बिगड़ी अर्थव्यवस्था, मौत के आंकड़े, चिकित्सा क्षेत्र की चुनौतियां, रोजगार की समस्या और भी बहुत सी चुनौतियां। जिनका उत्तर खोजने में सालों लग जायेंगे। एक और सीख कोरोना देकर जाएगा

“ना मंदिर काम आया, ना मस्जिद दी दिखाई।
कैसे नादान थे यूं ही लड़ रहे थे भाई भाई।।”

खुदा के बंदे फरियाद कर रहे थे और उसके दर पर ताले पड़े थे। यही बातें हम सबको मिलकर सोचनी हैं। क्यों हम इन विषम परिस्थितियों में फंस गए और क्यों बाहर निकलने का रास्ता नहीं नज़र आया ? इस प्रश्न का उत्तर हमें ही खोजना है। बाकी वक्त का क्या है

“वक्त की तो फितरत ही है गुजर जाना।
हंसकर नहीं, रोकर सही ये वक्त गुजर जाएगा।।”

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