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पहली महिला हाकर अरीना खान उर्फ पारो

  • वीरेन्द्र बहादुर सिंह 

इंसान अगर चाह ले तो उसके लिए कुछ भी असंभव नहीं है। चाहे वह महिला हो पुरुष। आज महिलाएं वे सारे काम बखूबी कर रही हैं, जिन पर कभी केवल पुरुष अपना अधिकार समझता था। जमीन से ले कर आसमान तक महिलाएं पुरुषों को मात दे रही हैं। ऐसा ही काम जयपुर की अरीना खान उर्फ पारो ने भी किया है। उन्होंने जो काम किया है, उसकी बदौलत आज वह भारत की पहली महिला मानी जा रही है।

जिस समय पूरा शहर मस्ती भरी नींद में सो रहा होता है, उसी समय सर्दी हो या गर्मी या फिर बरसात, सुबह के 4 बजे उठ कर 9 साल की अरीना खान उर्फ पारो अपने नन्हे-नन्हे पैरों से साइकिल के बड़े-बड़े पैडल मारते हुए राजस्थान के शहर जयपुर के गुलाम बाग सेंटर पर पहुंच जाती थी। गुलाब बाग के सेंटर से वह अखबार ले कर बांटने के लिए निकल जाती। पिछले 20 सालों से उसका यह सिलसिला जारी है।

9 साल की उम्र में पारो ने भले ही यह काम मजबूरी में शुरू किया था, पर आज इसी काम की वजह से वह देश में ही नहीं, पूरी दुनिया में जानी जाती है। एक तरह से यह काम आज उसकी पहचान बन गया है। अपने इसी काम की बदौलत आज वह देश की पहली महिला हाकर बन गई है। पारो जिन लोगों तक अखबार पहुंचाती है, उनमें जयपुर का राज परिवार भी शामिल है।

अरीना खान की 7 बहनें और 2 भाई हैं। माता-पिता को ले कर कुल 11 लोगों का परिवार था। इतने बड़े परिवार की जिम्मेदारी उसके पिता सलीम खान उठाते थे। इसके लिए वह सुबह 4 बजे ही उठ जाते थे। जयपुर के गुलाब बाग स्थित सेंटर पर जा कर अखबार उठाते और जयपुर कै बड़ी चौपड़, चौड़ा रास्ता, सिटी पैलेस, चांद पुल, दिलीप चौक, जौहरी बाजार और तिरपौलिया बाजार में घूमघूम कर अखबार बांटते थे। इसके बाद दूसरा काम करते थे। 12 से 14 घंटे काम कर के किसी तरह वह परिवार के लिए दो जून की रोटी और तन के कपड़ों की व्यवस्था कर रहे थे।

अरीना उस समय 9 साल की थी, जब उसके पिता की तबीयत खराब हुई। दरअसल उन्हें बुखार आ रहा था। बुखार आता तो वह मेडिकल स्टोर से दवा ले कर खा लेते और अपने काम के लिए निकल जाते। उनके पास इतना पैसा नहीं था कि वह अपना इलाज किसी अच्छे डाक्टर से कराते। इसका नतीजा यह निकला कि बीमारी उन पर हावी होती गई। वह साधारण बुखार टाइफाइड बन गया। एक तो बीमारी, दूसरे मेहनत ज्यादा और तीसरे खानेपीने की ठीक से व्यवस्था न होने की वजह से उनका शरीर कमजोर होता गया। एक दिन ऐसा भी आया जब सलीम खान को चलनेफिरने में परेशानी होने लगी।

अगर सलीम काम पर न जाता तो परिवार के भूखो मरने की नौबत आ जाती। उसे अपनी नहीं अपने छोटेछोटे बच्चों की चिंता थी। वह अपनी दवा कराए या बच्चों का पेट भरे। जब वह चलनेफिरने से भी मजबूर हो गया तो 9 साल की अरीना अपने अब्बू के साथ अखबार बंटवाने में उनकी मदद के लिए जाने लगी। वह पिता की साइकिल में पीछे से धक्का लगाती और अखबार बंटवाने में उनकी मदद करती।

किसी तरह घर की गाड़ी चल रही थी कि अचानक एक दिन अरीना के परिवार पर मुसीबत का पहाड़ टूट पड़ा। बीमारी की वजह से उसके पिता सलीम खान की मौत हो गई। अब कमाने वाला कोई नहीं था। ऐसी कोई जमापूंजी भी नहीं थी कि उसी से काम चलता। ऐसे में सहानुभूति जताने वाले तो बहुत होते हैं, लेकिन मदद करने वाले कम ही होते हैं। फिर किसी की मदद से कितने दिन घर चलता।

पिता के मरते ही मात्र 9 साल की नन्ही अरीना समझदार हो गई। उसने पूरे परिवार की जिम्मेदारी संभाल ली। इसकी वजह यह थी कि उसे अपने पिता के अखबार बांटने वाले काम की थोड़ीबहुत जानकारी थी। इसके अलावा वह और कुछ न तो करने के लायक थी और न ही कुछ कर सकती थी। पारो को पता था कि कहां से अखबार उठाना और किसकिस घर में देना है। फिर क्या था अरीना उर्फ पारो भाई के साथ गुलाब बाग जा कर पेपर उठाती और घरघर जा कर पहुंचाती।

इसके लिए उसे सुबह 4 बजे उठना पड़ता था। घरघर अखबार पहुंचा कर उसे घर लौटने में 9, साढ़े 9 बज जाते थे।

अरीना जयपुर के गुलाब बाग से उठा कर चौपड़, चौड़ा रास्ता, सिटी पैलेस, चांद पुल, दिलीप चौक, जौहरी बाजार, तिरपौलिया बाजार इलाके में घरघर जा कर अखबार पहुंचाती थी। इस तरह उसे लगभग 7 किलोमीटर का चक्कर लगाना पड़ता था। वह करीब सौ घरों में अखबार पहुंचाती थी।

शुरूशुरू में अरीना को इस काम में काफी परेशानी हुई। क्योंकि वह 9 साल की बच्ची तो थी ही। उतनी दूर चल कर वह थक तो जाती ही थी, साथ हीं उसे यह भी याद नहीं रहता था कि उसे किसकिस घर में अखबार डालना है। यही नहीं, वह रास्ता भी भूल जाती थी। इसके अलावा उसे इस बात पर भी बुरा लगता था, जब छोटी बच्ची होने की वजह से कोई उसे दया की दृष्टि से देखता था।

बुरे दिनों में मदद करने वाले कम ही लोग होते हैं। फिर भी अरीना के पिता को जानने वाले कुछ लोगों ने उसकी मदद जरूर की। इसलिए अरीना सुबह जब अखबार लेने गुलाब बाग जाती तो उसे लाइन नहीं लगानी पड़ती थी। उसे सब से पहले अखबार मिल जाता था। इसके बावजूद उसे परेशान तो होना ही पड़ता था। क्योंकि अखबार बांटने के बाद उसे स्कूल भी जाना होता था।

स्कूल जाने में उसे अक्सर देर हो जाती थी। क्योंकि वह अखबार बांट कर 9, साढ़े 9 बजे तो घर ही लौटती थी। उसके स्कूल पहुंचतेपहुंचते एकदो पीरियड निकल जाते थे। उसका पढ़ाई का नुकसान तो होता ही, लगभग रोज ही प्रिंसिपल और क्लासटीचल की डांट सुननी पड़ती थी।

उस समय अरीना 5वीं में पढ़ती थी। जब इसी तरह सालों तक चलता रहा तो नाराज हो कर प्रिंसिपल ने उसका नाम काट दिया। इसके बाद अरीना एक साल तक अपने लिए स्कूल ढूंढ़ती रही, जहां वह अपना काम निपटाने के बाद पढ़ने जा सके। वह इस तरह का स्कूल ढूंढ़ रही थी कि अगर वह देर से भी स्कूल पहुंचे तो उसे क्लास में बैठने दिया जाए।आखिर रहमानी माॅडल सीनियर सेकेंडरी स्कूल ने उसकी शर्त पर अपने यहां एडमिशन दे दिया। इस तरह एक बार फिर उसकी पढ़ाई शुरू हो गई। अखबार बांटने के बाद वह एक बजे तक अपनी पढ़ाई करती।

स्कूल में अरीना का जो क्लास छूट जाती, उसकी पढ़ाई अरीना को खुद ही करनी पड़ती।

जिस समय अरीना 9वीं क्लास में थी तो एक बार फिर उसकी और उसकी छोटी बहन की पढ़ाई में रुकावट आ गई। इसकी वजह थी उसकी आर्थिक स्थिति। अखबार बांटने से उसकी इतनी कमाई नहीं हो रही थी कि उसका अपना घर खर्च आराम से चल पाता। जब घर खर्च ही नहीं पूरा होता था तो पढ़ाई का खर्च कहां से निकालती। खर्च पूरा करने के लिए उसने एक नर्सिंग होम में पार्टटाइम नौकरी कर ली। अब वह सुबह उठ कर अखबार बांटती, फिर स्कूल जाती, उसके बाद नर्सिंग होम में नौकरी करती। नर्सिंग होम में वह शाम 6 बजे से रात 10 बजे तक काम करती थी। रात को घर आ कर उसे फिर अपनी पढ़ाई करनी पड़ती। इस तलह उसे हाड़तोड़ मेहनत करनी पड़ रही थी।

अरीना जब बड़ी हो रही थी, सुबह उसे अकेली पा कर लड़के उससे छेड़छाड़ करने लगे थे। पर अरीना इससे जरा भी नहीं घबराई। अगर कोई लड़का ज्यादा पीछे पड़ता या परेशान करता तो अरीना उसे धमका देती। अगर इस पर भी वह नहीं मानता तो अरीना उसकी पिटाई कर देती। अब वह किसी से नहीं डरती थी। परिस्थितियां सचमुच इंसान को निडर बना देती हैं।

पारो अखबार बांटने के साथ-साथ पार्टटाइम नौकरी करते हुए पढ़ भी रही थी। कड़ी मेहनत करते हुए उसने 12वीं पास कर लिया। इतने पर भी वह नहीं रुकी। उसने महारानी कालेज से ग्रेजुएशन किया, साथ ही वह कंप्यूटर भी सीखती रही। कंप्यूटर सीखने के बाद उसे एक प्राइवेट कंपनी में नौकरी मिल गई। लेकिन उसने अखबार बांटना नहीं बंद किया। सुबह उठ कर वह अखबार बांटती हे, उसके बाद लौट कर नहाधो कर तैयार हो कर नौकरी पर जाती है।

इतना ही नहीं, बाकी बचे समय में वह गरीब बच्चों को पढ़ने के लिए प्रोत्साहित ही नहीं करती, बल्कि पढ़ाती भी है। इसके अलावा कई संगठनों के साथ मिल कर गरीब बच्चों के लिए काम भी करती है। अरीना के समाज सेवा के इन कामों को देखते हुए उसे कई राष्ट्रीय एवं अंतरराष्ट्रीय पुरस्कार भी मिल चुके हैं।यही वजह है कि देश की पहली महिला हाकर होने के साथ-साथ समाज सेवा करने वाली अरीना को राष्ट्रपति ने भी सम्मानित किया है।

अरीना को जब पता चला कि उसकी मेहनत को राष्ट्रपति सम्मानित करने वाले हैं तो उसे बड़ी खुशी हुई। जिसे बयां करने के लिए उसके पास शब्द नहीं थे। उसके पैर मानो जमीन पर नहीं पड़ रहे थे। पैर जमीन पर पड़ते भी कैसे, छोटी सी उम्र से अब तक उसके द्वारा किया गया संघर्ष सम्मानित जो किया जा रहा था।

अरीना की जो कल तक आलोचना करते थे, आज शही उसे सम्मान की नजरों से देखते है। शायद यह उसके संघर्ष का फल है। लोग आज अपने बच्चों से उसकी मिसाल देते हैं। आज अरीना एक तरह से सेलिब्रिटी बन चुकी है। वह जहां भी जाती है, लोग उसे पहचान लेते हैं और उसके साथ सेल्फी लेते हैं। अरीना ने जो काम कभी मजबूरी में शुरू किया था, आज वही काम उसकी पहचान बन चुका है। शायद इसीलिए उसने अपना अखबार बांटने का काम आज भी बंद नहीं किया है। अरीना की स्थिति को देखते हुए साफ लगता है कि कोई भी काम छोटा या बड़ा नहीं होता। लड़कियां भी अगर चाह लें तो कोई भी काम कर सकती हैं।

(लेखक मनोहर कहानियां एवम् सत्य कथा के संपादकीय विभाग में कार्य कर चुके है)

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