– मनीषा कुमारी, विरार (मुम्बई )
मुझे भी पीड़ा होती हैं अपनो से दुर होने की।
मुझे भी इच्छा होती है, अपनो से मिलने की।।
वक्त का मारा कहूँ या खुद को बेसहारा कहूँ।
कितना सीने दर्द है यह कहूँ या खुद की बेबसी कहूँ।।
मैं भी चाहता हूँ तेरे संग दो पल खुशियों के बिताने की।
मैं भी चाहता हूँ तेरे संग प्यार के कुछ सपनें संजोने की।।
मेरे भी सीने में दिल है कोई पत्थर नही हूँ मैं।
मेरे भी आँखों से आँसू बहते है कोई निर्दयी नहीं हूँ मैं।।
तुम जो बारम्बार कहते हो समय नही देते हो मुझे।
हर बार इसी बात से बहुत तकलीफ होती हैं मुझे।।
तुम सब जानकर भी अनजान रहते हो मेरे लिए।
थक जाता हूं मैं भी अब तू बता अब क्या करूँ तेरे लिए।।
सुबह से शाम तक तेरे भविष्य संवारने में लगा रहता हूँ।
पागलों के जैसे मैं दीवाना बनके आजकल घुमा करता हूँ।।
मेरे दिल मे छिपी इस प्यार को तुम समझ जाओ अब।
तुम मेरा अभिमान हो इस बात को जान जाओ अब।।
मुझे भी ख्वाहिश हैं कुछ इस दिल के अरमान हैं।
कैसे तुझे बताऊँ मैं कोई मुरत नहीं मैं भी इंसान हूँ।।
(लेखिका पीवीडीटी कॉलेज ऑफ एजुकेशन फॉर वूमेन (एसएनडीटी वूमेंस यूनिवर्सिटी, मुंबई) में बी0एड0 द्वितीय वर्ष की छात्रा हैं।)