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डिप्रेशन या अवसाद

  • चन्द्र प्रभा सूद

डिप्रेशन या अवसाद आधुनिक भौतिक युग की देन है। हर इन्सान वह सब सुविधाएँ पाना चाहता है, जो उसकी जेब खरीद सकती है और वे भी जो उसकी सामर्थ्य से परे हैं। इसलिए जीवन की रेस में भागते हुए हर व्यक्ति अपने आप में इतना अधिक व्यस्त रहने लगा है कि सामाजिक, धार्मिक और पारिवारिक गतिविधियों के लिए उसके पास समय ही नहीं बचता। इसीलिए आज डिप्रेशन की समस्या बढ़ती जा रही है। वृद्ध और युवा तो इसकी चपेट में आ ही गए हैं, इसने बच्चों तक को नहीं छोड़ा, उनको अपने जाल में फंसा लिया है।

जब वह पीछे मुड़कर देखता है तो स्वयं को नितान्त अकेला पाता है। इसका कारण है कि अपनों को तो पता नहीं कब का पीछे छोड़ आया होता है। यही नामुराद अकेलापन उसके जीवन के लिए सबसे बड़ा अवसाद का कारण बन जाता है।

इस अकेलेपन के कई और भी कारण हो सकते हैं। पति या पत्नी की मृत्यु के बाद, तलाक के बाद पुनर्विवाह न करना, माता-पिता की अत्यधिक व्यस्तता के कारण बच्चों में, आफिस में किसी के द्वारा किया गया दुर्व्यवहार, वृद्धावस्था आदि में भी इस अकेलेपन की समस्या आड़े आती है।

अनावश्यक ही अधिक सोचते रहने के कारण मनुष्य की अपने जीवन के प्रति नकारात्मक अवधारणा बनाने लगती है। वह ऐसी अपेक्षाएँ करता है जो वास्तव में पूर्ण होनी असम्भव होती हैं। जब उसकी अपेक्षाएँ अधूरी रह जाती हैं, तो वे उसे अन्तर्मन की गहराइयों तक तोड़ देती हैं। ऐसी स्थिति में खाना-पहनना, घूमने जाना, हास-परिहास आदि उसे कुछ भी नहीं सुहाता। वह बस उल्टा-सीधा सोचता रहता है। ऐसे में उसके मन का उपचार करने की भी आवश्यक होती है। मन को नकारात्मक बनाने के स्थान पर उसे वास्तविकता के धरातल पर लाना आवश्यक होता है।

यह अवसाद यदि लम्बे समय तक बना रहे तो मन-मस्तिष्क को हानि पहुँचाता है। भावनात्मक परिवर्तन शरीर पर स्थाई एवं अस्थाई प्रभाव छोड़ते हैं। परेशानी इस कारण होती है कि मस्तिष्क का आकार घटने लगता है। शरीर में कुछ रासायनिक परिवर्तन होने लगते हैं।

अवसादग्रस्त जीवन के प्रति अरुचि जैसे लक्षण उभरने लगते हैं। यह अवस्था अधिक समय तक नहीं बनी रहती अपितु कुछ समय पश्चात स्वत: सामान्य हो जाती है। कई मानसिक रोगी तनावग्रस्त होने पर अधिक खाने लगते हैं। उनकी मानसिक एकाग्रता नष्ट हो जाती है। वे हर बात को भूलने लगते हैं और अनिर्णय की स्थिति में पहुँच जाते हैं। उनके विचारों की स्पष्टता खत्म हो जाती है व गडमड होने लगते हैं।

प्राचीनकाल से ही हमारे भारतीय मनीषी सकारात्मक सोच रखने की शिक्षा देते रहे। इसकी मनुष्य के शारीरिक, मानसिक और आत्मिक स्वास्थ के लिए बहुत जरूरत होती है।

इन सकारात्मक विचारों से शरीर की ग्रंथियाँ अधिक सक्रिय होकर काम करने लगती हैं। हारमोन्स का प्रवाह शरीर को स्फूर्ति प्रदान करता है जिससे भरपूर नींद आने लगती है और मन व मस्तिष्क को सुकून मिलता है। फिर से जीवन के प्रति उत्साह होने लगता है। तब यही दुनिया जो पहले बदसूरत दिखाई देती थी, सुन्दर लगने लगती है। चिंता, तनाव अथवा अवसाद बढ़ जाने की स्थिति में किसी योग्य चिकित्सक का परामर्श लेना आवश्यक होता है। अन्यथा व्यक्ति के मानसिक सन्तुलन खो जाने में अधिक समय नहीं लगता।

इस अवसाद से मुक्त होने के लिए सद् ग्रन्थों का स्वाध्याय करना चाहिए, सज्जनों की संगति में रहना चाहिए और ईश्वर का ध्यान लगाना चाहिए। यौगिक क्रियाएँ भी लाभदायक होती हैं। इन सबसे बढ़कर मनुष्य को स्वयं को सामाजिक कार्यों में व्यस्त रखना चाहिए। सबके साथ मिलना-जुलना चाहिए और हो सके तो किसी हाबी में समय बिताना चाहिए।

ईश्वर पर विश्वास सदैव आत्मिक बल देता है। अवसादग्रस्त व्यक्ति को यह विश्वास दिलाना चाहिए कि ईश्वर उसका अपना सच्चा मीत है। वह उसकी रक्षा करेगा, उसके दुख दूर करेगा, सहायता करेगा और कल्याण भी करेगा। ईश्वर पर दृढ़ विश्वास रखने वाले को कभी अवसाद हो नहीं सकता। यदि दुर्भाग्यवश कभी ऐसी स्थिति बन जाती है तो वह शीघ्र ही उस अवसाद से बाहर निकल आता है।

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