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कविता : चलना ही जीवन है

– अर्चना त्यागी

चलना ही जीवन है
क्या हुआ जो कश्तियां न मिली
किनारे हमसे दूर हो गए।
चाहा तो न था, फिर भी मझधार मिला।
चलो फिर चलें, आदतन।
डूबा देंगी लहरे कैसा है डर ?
छोड़ें यह विचार,
पहुंचेंगे न हम किनारों तक।
नियम है गति, लगन है गति।
हर शर्म छोड़ें, हर डर छोड़ें।
अकेले चलें, चलते ही रहें।
न देखें सहारा कश्तियों का,
न उम्मीद ही रखें किनारे की।
बस चलें और चलते रहें।
रुकने न पाएं, कदम बढ़ते ही रहें।
मिलेंगे एक दिन लक्ष्य के जहाज़
जो डूबेंगे नहीं,
बहते रहेंगे।
सफलता का उच्च शिखर बन उठेंगे।

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