रिपोर्ट : वीरेन्द्र बहादुर सिंह
पुरुष हो या महिला, प्रकृति द्वारा मिली कमी को स्वीकार कर लेने के बाद जीने का मनोबल बना लेने के बाद भी कदमकदम पर ठोकरें खानी पड़ती हैं। इस अधूरेपन का अतिक्रमण कर इसे अव्वल बनाने का साहस बहुत कम लोगों में होता है। हेलन केलर, अरुणिमा सिन्हा या दीपा मलिक जैसा मनोबल और प्रतिभा सब नहीं अर्जित कर सकता।
भारत में विकलांग लोगों में 21 प्रतिशत महिलाएं हैं। जिसमें मूकबधिर-ब्लाइंड या हाथ-पैर काम न कर रहे हों या दुर्घटना में गंवा चुके हों, इस तरह की महिलाएं भी शामिल हैं। एनजीओ और सरकारी संस्थाएं नौकरी में आरक्षण, टैवलिंग में कंसेशन, रिहैबिलेटेशन सेंटर, वोकेशनल ट्रेनिंग, लोन और पढ़ाई की फीस माफ करने जैसी सुविधाएं देती हैं। पर दुख की बात यह है कि ये जानकारियां सही ढ़ंग से जरूरतमंदों तक नहीं पहुंचती हैं। इसके अलावा सब से बड़ी कमी यह है कि हमारे यहां डिसेबल फ्रेंडली ऐटमॉस्फीयर भी नहीं है।
लड़की को चश्मा लग जाए या कोई टेम्परेरी चोट लग जाए या कोई ऊंच-नीच हो जाए तो पैरेंट्स विकलांग बेटी को किस तरह संभालते होंगे? ज्यादातर पैरेंट्स अपना फ्रस्टेशन बेटी पर ही निकालते हैं। देखा तो यह जाता है कि 50 प्रतिशत विकलांग महिलाओं की घर में आदमी के रूप में गिना ही नहीं जाता है। अगर मां-बाप संवेदनशील हुए तो वे भी लबे समय बाद प्रेेक्टिकल हो जाते हैं। उन्हें न्यूट्रिशन की अधिक जरूरत होने पर भी इसकी अवगणना की जाती है। बाथरूम-टॉयलेट बारबार न ले जाना पड़े, इसके लिए बेटी को खाना-पीना कम दिया जाता है।
जिनके हाथ-पैर सलामत हैं, पर आंख-कान बेकार हैं या वे बोल नहीं सकतीं, इनकी थोड़ी देखभाल जरूर होती है। उन्हें उनकी क्षमता के अनुसार संगीत या अन्य किसी कला में पारंगत कराया जाता है। परंतु मानसिक और शारीरिक रूप से पराधीन महिलाओें का जीवन हमेशा अग्निपरीक्षा जैसा बना रहता है।
विकलांग महिला कुछ सीखने के लिए बाहर जा सके, इसके लिए ट्रांसपोर्ट की सुविधा का होना जरूरी है। अगर घर में गाड़ी नहीं है तो उसे कैसे बाहर ले जा सकता है? मेंटली डिसआर्डर महिला का जीवन प्रायः घर के एक कोने में ही गुजर जाता है। आर्टिफिसियल फुटवेयर द्वारा इनकी जिंदगी तो गुजरती है, पर समाज मेें सम्मान पाने के लिए इन्हें बहुत तकलीफ झेलनी पड़ती है। पढ़े-लिखे लोग भी इन्हें किसी अजीब प्राणी की तरह देखते हैं अथवा सहानुभूति दर्शाते हुए यह दिखाने की कोशिश करते है, साथ ही उसे बेचारी होने का सदैव अहसास कराते रहते हैं।
इनकी आंखें सपना तो देखती हैं, पर उन्हें पंख नहीं मिलता। इनका दिल तो धड़कता है, पर उस धड़कन को सुनने वाला कोई नहीं होता। इनकी शारीरिक जरूरतें तो पूरी होती हैं, पर मन के दरवाजे पर दस्तक देने वाला कोई नहीं होता।
विकलांग व्यक्ति के स्वास्थ्य में उतार-चढ़ाव होता रहता है। शहर में तो इसका ट्रीटमेंट हो जाता है, पर गांवों में ट्रीटमेंट न मिलने से इस तरह की महिलाओं की स्थिति बड़ी दयनीय हो जाती है। जो अपनी पंगुता से लड़ कर बाहर की दुनिया में निकलती हैें, तो पहले तो उनका मजाक उड़ाया जाता है। आखिर क्या उन्हें आत्मनिर्भर होने का अधिकार नहीं है? कोई बेचारी कहे, कोई मजाक उड़ाए या अपमान करे तो अंदर सुलगता दावानल आंसू बन कर भी नहीं बह सकता। सरकार की आरक्षण पॉलिसी की वजह से शायद नौकरी मिल भी जाी है तो चुनौतियां कम नहीं होतीं। इनके लिए अलग बाथरूम नहीं होता, इमरजेंसी की कोई व्यवस्था नहीें होती। सहकर्मियों की गुड बुक में आने के लिए इन्हें बहुत कोशिश करनी पड़ती है।
जबकि पिछले एक दो दशक में शरीरिक रूप से विकलांग अनेक महिलाओें ने अपनी पंगुता को चुनौती दी है। सामान्य महिला भी न कर सके, इस तरह सफलता प्राप्त कर के इन्होंने लोगों की बोलती बंद कर दी है। सेरेब्रल पाल्सी से पीड़ित जस्मीना सॉफ्रटवेयर प्रोफेशनल है। जस्मीना के पिता ने उसकी पढ़ाई के लिए सारी सुविधाएं उपलब्ध करा रखी थीं। वह विकलांगों के लिए ब्लाग लिखती है और उन्हें हर जगह ट्रीटमेंट मिल सके, इसके लिए लड़ाई भी लड़ रही है। उसका कहना है कि मैं फिजिकली चैलेंज्ड हूं, यह बात सच है, साथ ही मैं मनुष्य भी हूं।
इसी तरह विराली मोदी मिस व्हीलचेयर इंडिया बनी। मलेरिया के बाद कोमा मेें जाने वाली विराली बच तो गई ,पर चलने-फिरने की शक्ति खो बैठी। विराली ने इंडियन रेलवे और रेस्त्रा को व्हीलचेयर फ्रेंडली बनाने के लिए पिटीशन दाखिल कर रखा है। वह व्हीलचेयर पर बैठ कर अनेक टेकटॉक देती है। दुर्घटना में पैर गंवा चुकी प्रीथि श्रीनिवासन विकलांगों के लिए संस्था चलाती हैं। ब्लाइंड वैशाली साल्वकर 8 बार चेस मेें नेशनल चैम्पियन रह चुकी हैं। मानसी जोशी बैडमिंटन मेेें इंटरनेशनल लेबल की विजेता रही हैं। आर्टिफिसियल पैरों के साथ मैदान में उतरना कोई छोटी बात नहीं है। संगीता देसाई भारत की पहली डिसेबल बिजनेस वुमन हैं। उन्होंने रे नेचर नामक कंपनी स्थपित की है। पुरुषों के लिए केमिकल फ्री ग्रूमिंग पढ़तेपढ़ते एपिलेप्सी का शिकार बनीं शहनाज हवेलीवाला को किसी ने नौकरी नहीं दी तो उन्होंने लॉ-गार्डन कंपनी स्थापित कर इंडोर गार्डन बनाना शुरू किया। जिसमें एपिलेप्सी से पीड़ित लोग ही काम करते हैें। विदेशों में तो विकलांग महिलाएं कॉमेडी शो से ले कर नाटक और टीवी शो में ऐक्टिव हैं। थोड़ी सुविधा, अवसर और हिम्मत द्वारा शारीरिक रूप से विकलांग महिलाएं जीने का वजूद खोज सकती हैं। परंतु मानसिक रूप से विकलांग महिलाओं का क्या हो सकता है?
मानसिक रूप से विकलांग महिलाओं के साथ कैसा व्यवहार किया जाए, यह हम सभी को पता नहीं होता। हेल्थ और हाइजिन तो चैलेजिंग है। परंतु इन्हें संभालना मुश्किल काम है। उनका मन विकसित नहीं होता, पर शरीर विकसित होता रहता है। शरीर की अपनी जरूरतेें होती हैं, जिससे जवानी मेें उनकी स्थिति का फायदा उठा कर उनका सेक्सुअल हैरेसमेंट होता है। रेप के मामले इनके साथ अधिक होते हैं, वह भी अपनों द्वारा। अनवांटेड प्रेग्नेंसी का भी खतरा रहता है। सेक्सुअली ट॰ांसमिटेड अनप्रोफेशनल व्यक्ति द्वारा होता है। इस तरह की महिला जब मां बनती है तो 29 प्रतिशत केसों में इनका ट्रीटमेंट अनप्रोफेशनल व्यक्ति द्वारा ही होता है। एक सर्वे के अनुसार डिसेबल वाइफ के साथ डोमेस्टिक वायलेंस भी अधिक होता है। घर के लोगों की हमेशा इनकी चिंता रहती है। बाहर की दुनिया में खतरा होने की वजह से इन्हें घर में ही कैद रखा जाता है। अपमान, अवगणना, उपेक्षा और अन्याय द्वारा वे शरीर के साथ मानसिक कष्ट भी सहन करती हैं। वह अधूरी है, उसमें कमी है, परंतु है तो आदमी ही। एक महिला का हृदय उसमें भी धड़कता है। उसे प्यार न कर सके तो कोई बात नहीं, पर उसे घाव तो न दें।
(लेखक “मनोहर कहानियां” व “सत्यकथा” के संपादकीय विभाग में कार्य कर चुके है। वर्तमान में इनकी कहानियां व रिपोर्ट आदि विभिन्न पत्र पत्रिकाओं में प्रकाशित होती रहती है।)