✍️ शुचि गुप्ता
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नव रूप लेकर मौन अंतस भावना छलती गई।
निर्झर द्रवित उर वेदना शुचि काव्य में ढलती गई।
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सब बंद होते ही गए जो द्वार स्वप्निल थे सुखद।
सम रेणुका फिसले मृदुल क्षण रिक्त हाथों से दुखद।
प्रस्तर प्रहारों से मृदा ये स्वर्ण बन गलती गई।
निर्झर द्रवित उर वेदना शुचि काव्य में ढलती गई।
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अंतर्मुखी व्यक्तित्व की मृदु दीप्ति कोमल कांत सी।
फिर क्रूर झंझावात में वो कँपकपाती क्लांत सी।
संघर्ष से घृत ताप ले वो लौ बनी जलती गई।
निर्झर द्रवित उर वेदना शुचि काव्य में ढलती गई।
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दायित्व पथ एकल बढूं बस धैर्य से मन साध कर।
हो दैव इतना तो सदय विश्वास मम निर्बाध कर।
सद लक्ष्य का संकल्प ले कर्तव्य पथ चलती गई।
निर्झर द्रवित उर वेदना शुचि काव्य में ढलती गई।।
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