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अतीत का एक आईना अभिलेखागार है, इसका स्थानांतरण नहीं बल्कि संरक्षण होना चाहिए : प्रवीण वशिष्ठ

उत्तर प्रदेश : सरकार राज्य के तीन क्षेत्रीय अभिलेखागारों वाराणसी, प्रयागराज व आगरा को राज्य अभिलेखागार लखनऊ स्थानांतरित करने जा रही है। सरकार के अधिसूचना में जो तर्क दिया जा रहा है वह इन अभिलेखागारों को डिजिटल करने व संरक्षण हेतु केन्द्रण करना ही है। अब सवाल उठता है कि इस काम के लिए क्षेत्रीय अभिलेखागारों को शिफ्ट करने की क्या जरूरत है? यह काम तो अभिलेखागारों के मूल स्थान पर रख कर भी किया जा सकता है। जबकि मौजूद तीनों अभिलेखागार प्रदेश के तीन महत्वपूर्ण सांस्कृतिक, ऐतिहासिक एवं राजनैतिक स्थल पर स्थित है। पहला वाराणसी जो प्राचीन समय से सांस्कृतिक एवं ऐतिहासिक दृष्टिकोण से महत्वपूर्ण केंद्र रहा है। यहाँ पर्यटन हेतु हजारों लोग आते हैं। काशी न केवल आस्था से जुड़ा हुआ है, बल्कि मौजूदा सरकार के प्रधानमंत्री का यह संसदीय क्षेत्र भी है। यहाँ चार विश्वविद्यालय स्थित है, जिसमें देश का एक श्रेष्ठ केंद्रीय विश्वविद्यालय काशी हिन्दू विश्वविद्यालय भी है। काशी के क्षेत्रीय अभिलेखागार में जौनपुर, बनारस, मिर्ज़ापुर, आजमगढ़ व गाजीपुर से जुड़े अभिलेख पड़े हुए हैं। अगर अभिलेखागार लखनऊ चला गया तो बनारस या पूर्वांचल पर काम करने के लिए बनारस की जगह लखनऊ जाना पड़ेगा। दूसरा, प्रयागराज एक ऐतिहासिक शहर होने के साथ-साथ महत्वपूर्ण धार्मिक केंद्र भी है। यहाँ का क्षेत्रीय राज्य का सबसे समृद्ध अभिलेखागार है। यहाँ राज्य का दूसरा सबसे महत्वपूर्ण केंद्रीय विश्वविद्यालय भी है। यहां के अभिलेखागार में प्रदेश के हर जिले का इतिहास संरक्षित है। तीसरा, आगरा एक महत्वपूर्ण ऐतिहासिक स्थल है। पश्चिमी उत्तर प्रदेश पर शोध करने वालों के लिए यहाँ मूल प्रमाण व अभिलेख पड़े हुए हैं। आगरा में भी एक राज्य विश्वविद्यालय स्थित है। जहां सैकड़ो शोध कार्य चल रहा है।

आज इतिहास के सबसे मुखर वक़्ता पार्टियों प्रवक्ता बन बैठे हैं। सरकार गौरवशाली अतीत गढ़ने में परेशान है। अतीत के हर विषय को मुद्दा बना कर राजनीतिकरण किया जा रहा है। डिजिटल मीडिया इस पेशे में पेशकार है जो हर झूठ को प्रोड्यूस कर रहा है। अब विषय यह है कि इस पूरे प्रक्रिया में इतिहास कितना ऐतिहासिक है यह तो इतिहासकार ही बता सकता है। पर इतिहासकार तमाशा देख रहा है। कुछ इतिहासकार पीछे से पार्टियों के पंडितों के पैरोकार बने हुए हैं। चलचित्र को देखने वाला समाज भी अब मीडिया व सिनेमा के निगाहों से अतीत को देख रहा है। वास्तव में अतीत का जो आंशिक सत्य या भावना बची पड़ी हैं, वह अभिलेखागारों या संग्रहालयों में है। पर वहाँ कौन जाए? कौन अतीत से सवाल करे?

भारत के अतीत की अपार संभावनाएं हैं। हमारे प्रत्येक विविधता की जड़े उसकी लोक भाषा, संस्कृति, परंपरा व साहित्य से जुड़ा हुआ है। इसकी ऐतिहासिकी को सजोनें की जरूरत है। ज्ञान का केन्द्रण नहीं विकेंद्रण होना चाहिए। उसे तकनीकी से जोड़ना व विकसित करना चाहिए। लेकिन उसे स्थानांतरित कर के उसके सुलभता को नष्ट नहीं करना चाहिए। सरकार को यह ध्यान देना चाहिए की अभिलेखागारों में केवल शिक्षक, विद्यार्थी व शोधार्थी ही नहीं बल्कि समाज के जिज्ञासु जनता भी शोधकार्य के लिए जाती है। इस लिए अभिलेखागारों की सुलभता और सहजता के लिए उसे और स्थानीय बनाने की जरूरत है न कि स्थानांतरित करने की!

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