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Varanasi : मैंने विश्वेसरगंज का बाजार देखा

✍️ प्रवीण वशिष्ठ

विश्वेसरगंज मतबल ‘बनारस’ का दिल। वही दिल जो आज भी शिव के लिए धड़कता है । कुछ इतिहासकारों का मानना है कि काशी विश्वनाथ द्वारा यह जगह बसाया गया है। तीन टापूओं से घिरा विश्वेसरगंज-गौदोलिया का भाग भौगोलिक रूप से चन्द्राकार काशी के शीर्ष पर है। इसकी व्याख्या काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के भौगोलविद राणा पी. बी सिंह , इतिहासकार डॉ.अनुराधा सिंह व प्रो. राकेश पांडेय सर ने अपने पुस्तक व लेखों के माध्यम से किया है। यहाँ के घरों की बनावट व बसावट दोनों ही अजीब है। सड़क से 2 फीट की की ऊंचाई और घर के डेवढ़ पर गणेश जी की मूर्ति आज भी है यह दर्शाता है कि गंगा का प्रकोप कभी ना कभी इन सड़कों और मकानों तक आता रहा होगा।

वैसे तो बनारस को एक जीवंत शहर कहा जाता है। काशी की जीवन्तता ही उसकी खूबसूरती है। लेकिन बाज़ारीकरण, भौतिक भोजनालय जिसे रेस्टोरेंट भी कहते हैं और चमक-दमक के इस दौर में काशी की जीवंतता आज बदल रही है। काशी को बहुत से नामों से जाना जाता रहा है लेकिन तीन नाम ऐसे हैं जो काशी के वृहद सांस्कृतिक परिदृश्य को समेटते हैं। पहला ‘काशी’, काशी एक ऐसा ‘शब्द’ है जो वृहद रूप से महाजनपद युगीन लोक परंपराओं को समेटता है। साथ ही आज की जो काशी की संस्कृति है उसका प्रतिनिधित्व करता है। दूसरा नाम वाराणसी है बिल्कुल एक नया शब्द है जो काशी की आधुनिकता को दर्शाता है। आज के सुंदरीकरण से लेकर भौतिक दिवालियापन तक सब वाराणसी ही है। लेकिन जो काशी की सबसे बड़ी बात है वह हैं यहाँ का मिजाज तो इसके लिए एक ही शब्द उपयुक्त है, जिसे हम ‘बनारस’ कहते हैं। हाँ! वही बनारस जिसके पान बहुत मशहूर हैं, वही बनारस जहाँ बात-बात में ‘मालिक’ कहते हैं। ‘का हो गुरु’ यह मिजाज बनारस में ही दिखता है। मैं एक काशीवासी से पूछा कि क्या सच में बनारस बदल रहा है? तो उनका जवाब था पहले कचौड़ी खा लेब तब बताइब, बाद में कचौड़ी खाने के बाद उन्होंने कहा कि “समझले केतना बदलल बा बनारस”। यह जीवंतता आपको केवल बनारस में ही मिलेगी। बाहर से आने वाले लोग यहाँ आकर कुछ सीखें या न सीखे सड़क पर पान खा कर थूकना जरूर सीख जाते हैं। परिवर्तन का कोई भी दौर हो बनारसी, बनारसी ही रहते हैं, पान खाकर सरकार को गिराने की ताकत केवल बनारसीयों के पास ही है। यहां चंद्रबिंदु सत्ता केवल शिव के कमंडल में और हुनर मुख्य मंडल पर रहता है।

इस बदलाव को देखने मैं विश्वेसरगंज बाजार गया जो बनारस की सबसे पुरानी या यूं कहें पूर्वांचल की सबसे बड़ी खाद्यान्न मंडी है। सड़क के भीड़ में कंधे से कंधा टकरा रहा था। लोग मुर्दे के समान बस आगे बढ़ रहे थे । उसी बीच मुझे एक जीवंत दृश्य दिखाई दिया। एक मुर्दे को चार लोग उसी जाम में संभाल कर निकाल रहे थे। मुर्दों के भीड़ में एक जीवन्त मुर्दा देखकर लगा कि बनारस अभी जीवन्त है। फिर मैं विश्वेसरगंज के बाजार में गया। यह वही बाजार हैं जहाँ से पूरे शहर के दूकानों में चमकदार पॉपकार्न व नूडल्स जाते हैं, लेकिन वहाँ के दूकानों के आगे के छज्जों व पुरानी दूकानों के सिडनदार दीवालें मुझे अंग्रेजों के द्वारा खींचे गए अट्ठारहवीं शताब्दी के बाज़ारों के दृश्यों से मेल खाता हुआ दिखाई दिया। बदलाव के बीच में निरंतरता कितना सटीक है यह मुझे वहाँ पता चला। बदलाव कहाँ है आपके सोच में है, शहर के उन हिस्सों में हैं जहाँ अभी जमीनों के कीमत लगाए जा रहे हैं। पर विश्वेसरगंज के बाजार में बस सामानों की बोली लगती है। जहाँ आधुनिकता अकड़ रही हो, परिवर्तन पराकाष्ठा पर हो और सुंदरता बिक रहा हो वही आज का बाजार है। पुराने बाज़ारों ने परिवर्तन के कई दौर देखें हैं। लेकिन अपने निरन्तरता को बचाये हुए आज भी कहते हैं ‘जाए द हो, सब लवंडई ह’। हमारा शहर बदल रहा है लेकिन सोच आज भी वही है परिवर्तन के बीच में बनारस की एक निरन्तरता आज भी बची है,

काशी के आध्यात्म पर कुछ कहना पाप है। बस यूं कहें सड़क पर चलते हुए अगर कोई साधु ठेले पर चाट खाता दिख जाए तो समझिए आपकी आध्यात्मिकता भी कुछ छड़ के लिए स्वादिष्ट हो जाएगी। आप भी सन्यास से विचलित होकर सुन्दरता को निहारने लगेंगे।विश्वेसरगंज बाजार के बगल में एक पुरानी इमारत दिखेगी। ठीक डाकखाने के सामने उसे नागरी प्रचारिणी सभा कहते हैं। एक दौर था जब लोग इसी नागरी प्रचारिणी सभा की सदस्यता लेकर सड़क पर अकड़ कर कहते थे हम भी साहित्यकार हैं। बात तब की है जब प्रेमचन्द के उपन्यास को लेने के लिए हजारों की लाइन लगती थी। तब रोमांच के लिए आईपीएल नहीं था बल्कि बगल के दुकान पर जयशंकर प्रसाद की कामायनी ब्लैक में बिक रही थी। उग्र की चॉकलेट तब भी रोमांटिक उपन्यास होता था जब समलैंगिक संबंध को कानूनी अधिकार नहीं मिला था। समाज की गहराई को लोग तब साहित्य से नापते थे। आज का भी क्या दौर है आदमी एकदिन में सुपरस्टार बनता है तो एक रात में बलात्कारी। मैं गया जब काशी नागरी प्रचारिणी सभा तो अंदर की जीर्ण इमारत को देखकर मुझे लगा शायद साहित्य समाप्ति के कगार पर है। तभी मुझे निराला जी की एक साहित्य दिखी जिसपर पेन से लिखा था यह पढ़ने के स्थिति में नहीं है। सरकार कोई भी हो साहित्य से नहीं बल्कि अब धर्म और जाति से चलती है। एक दौर था जब देश गुलाम था साहित्य व समाचार पत्रों पर बहुत से सेंसरशिप लगाए गए लेकिन आज के मीडिया चाहे डिजिटल हो या प्रिंट किसी पर कोई सेंसरशिप नहीं लगाया जाता। जो मीडिया अपने प्रारम्भिक दौर में ब्रिटिश सत्ता को कलम से नपुंसक कह रही थी वो साहित्य व मीडिया अब राजनैतिक घरानों में बट चुकी है। यहाँ अगर सत्ता के समर्थन चाटुकार हैं तो विपक्ष की मीडिया भी निहाय आलोचक ! दूरदर्शन से लोग दूर व्हाट्सएप के दर्शन में लीन हैं और नागरी प्रचारणी अपने जीर्ण साहित्य को सवारने के लिए एक जीवंत साहित्यकार ढूंढ रहा है। वो भी उस शहर से जहाँ कभी हिंदी का उत्थान हुआ। विशेसरगंज कभी मूल बनारस हुआ करता था आज उसकी मौलिकता मौन बनारस बन चुकी है। हिंदी उत्थान से उठान के पीछे भले कोई कारण हो या न हो लेकिन हिंदी उत्थान का केंद्र अगर बनारस था तो इसके उफान को कानपुर के गणेश शंकर विद्यार्थी और प्रताप नारायण मिश्र वहीं मीरजापुर के बद्रीनारायण प्रेमधन और पांडेय बेचन शर्मा उग्र के साहित्यों में देख सकते हैं। केंद्र से दूर परिधि का पतन हिन्दी भाषा के पतन से जुड़ा है।

इस बाजार से न केवल बनारस का आर्थिक पक्ष जुड़ा हुआ है बल्कि यहीं से साहित्य व संस्कृति का उत्थान व पतन जुड़ा हुआ है।

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